यान्त्रिक ध्वनि है कह रही, वसन्त आ गया!

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय –


जोगिया रंग रँगाये, देखो! सन्त आ गया,
प्रथा दम तोड़ती, देखो! ‘अन्त’ आ गया!
खेतों की हरियाली, अब मुँह है छुपा रही,
इधर रुग्ण परिवेश, उधर वसन्त आ गया!
काया अब लपेटती, कण्टक-सी वायु यहाँ,
कैसा चहकता-बहकता, वसन्त आ गया !
संस्कार सारे विकृति के, कगार पर हैं खड़े,
यान्त्रिक ध्वनि है कह रही, वसन्त आ गया!
कृत्रिम पुष्प प्रभावी हैं, प्राकृतिक पुष्पों पर,
गुलमुहर, दाउदी अलक्षित, वसन्त आ गया!
कोयल कूकती नहीं, तितलियाँ नेपथ्य में,
निसर्ग है विक्षुब्ध, और वसन्त आ गया!
भ्रमर भी क्लान्त मन है, पराग-रस से परे,
मोहिनी अवगुण्ठित, और वसन्त आ गया!
लहलहाती सरसों की, मति-गति व्यथित,
पीत वर्ण रासायनिक बन वसन्त आ गया!
प्रवाह ले समीर अब, है दिग्भ्रान्त हो चला,
बिनब्याही अनुभूतियाँ और वसन्त आ गया!
ऋतु-साम्राज्ञी से विच्छेद, सम्बन्ध है लक्षित,
एकाकी नीरव पथ चलता, वसन्त आ गया!
विद्या-देवि के पाँव में, अर्थ-तन्त्र की अर्गला,
फिर कौन बोल रहा, कैसे वसन्त आ गया!
प्रकृति कहाँ निरापद, मानवबल-प्रयोग से,
मित्र! अहो मित्र! कैसे कहें, वसन्त आ गया?


यायावर भाषक-संख्या : ९१२५४३४१५६
( सर्वाधिकार सुरक्षित :डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय; २४ जनवरी, २०१८ ईसवी )