ज़िन्दगी का मक़्सद बन!

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

घिसटते हुए टायर की तरह
ज़िदगी जीनेवालो!
अपने भीतरभरी हवा की इज़्ज़त करना सीखो।
फटे बाँस की तरह
चरचपर चरचरमरमर करती ज़िन्दगी,
एहसासात को छूती तो है,
बूझती नहीं; ताड़ती नहीं।
कारणो के पिटारे मे से,
झाँक रहे उस बेचैन कारण को देखो!
जो गैसभरे गुब्बारे की तरह अबक-टबक करता,
आँखों को ऊपर-नीचे नचाता आ रहा है।
तुम पर भारी पड़ता हर प्रश्न,
उत्तर की गोद मे उकड़ू-मुकड़ू बैठा है;
चेहरे पर असंतोष और क्षोभ को देखो;
मुँह फुलाता है और झपट उतर आता है।
अफ़्सोस तो यही है,
तुम आज तक समझ न सके;
वह प्रश्न तुम्हारी कोख से उपजा है
वा दत्तक बन,
तुम्हारे माथे का शिकन
गहरा और चौड़ा करता आ रहा है?
काश! तुमने प्रश्नो से जूझने की कला सीखी होती।
उपालम्भ ख़ुद से करो;
तुमने परिवाद की दीवारें खड़ी तो कर दी थीं;
उपहास के बीज-वपन करने से पहले सोचा तो होता?
अब सब व्यर्थ है;
बीज-अंकुरण का श्रेय प्राप्त कर चुका है।
नियति का दुराशय१ व्यर्थ नही जाता;
अपना निहितार्थ दोनो हाथों मे भर लेता है।
तुम छूँछे आदमी झुनझुना तो बजा सकते हो;
बहुत हुआ तो गाल पर ताल भी दे सकते हो;
मगर अपने बचे-खुचे भाव की गोद मे,
अभाव को नहीं बैठा सकते;
क्योंकि तुम्हारी आदमीयत
दोगली कोख से आ सटी है;
क्षुद्रजीवी जो है।
उस बरेंड़ा२ को देख रहे हो,
खपरैलों का सारा भार
अपने शरीर पर तोलता आ रहा है;
‘उफ़्फ़!’ नहीं करता।
जानते हो क्यों?
क्योंकि वह मर्मज्ञ होता है;
वह हर ‘नरिया’३ और ‘थपुआ’४का
मनोविज्ञान जानता है;
उनके मर्मस्थल से उठनेवाली हर सिसकी को
सहलाने का सामर्थ्य भी रखता है।
तुझे बनना और बनकर दिखना है तो,
भावभरी दीवार बन!

शब्दार्थ :―

१बुरी नीयत २छाजन अथवा खपरैल के मध्य का सबसे ऊँचा भाग ३मिट्टी का नालीनुमा बना हुआ होता है, जो अगल-बग़ल के खपरों के कोरों को ढकने का काम आता है। (यह भोजपुरी का संज्ञा-शब्द का स्त्रीलिंग है।) ४यह नरिया के साथ जुड़कर खपरैल का निर्माण करनेवाला चौकोर आकार का होता और उसके अगल-बग़लवाले हिस्से रक्षात्मक रूप मे थोड़ा-थोड़ा खड़े रूप मे दिखते हैं। यह भी भोजपुरी का शब्द है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ५ फ़रवरी, २०२३ ईसवी।)