कविता : माँ

जगन्नाथ शुक्ल (इलाहाबाद)

उदर में नव मास रख के,
जग के सारे कष्ट सहती।
खुश  रहे   औलाद  मेरी,
बस यही अरमान रखती।
झुलसती दिन -रात है जो,
उलझनों  के  साथ  जीती।
पर न कह सकती किसी से,
खुद की है जो आप- बीती।
मुस्कुराना    भूल  कर  अब,
कुछ सहमी -सी रहती है जो।
खुद  के  बनाए  ही  किले में,
जाने क्यों   घुटती    है    वो।
कण्डियों  से  रोटी     पकाती,
अंगारों को पकड़ लेती है जो।
खुद   को  अगणित यातना दे,
वात्सल्य से जकड़ लेती है जो।
क्यों   वधू   के     आगमन  से,
पल में  लगती पराई -सी है वो।
मुझ   में  ही  है   खोट    सारा,
यह   सोच।  कर   रोती  है वो।
जिसने   हमको  है    पिलाया,
अपने  रक्त   को  भी श्वेत कर।
हमने  उसको    क्यों  रुलाया,
रक्त को भी  आँसू  समझकर।
मैं    अभागा    हूँ   जगत   में,
दे   सका   न   प्रेम    तुमको।
जिसने    पाला   है  मुझे नित,
आँचल का अपने छाँव देकर।
मैं   भला   खुश   कैसे ‘जगन’
दिल   में   उसके  घाव देकर।
चाहे   जितने    जन्म   ले  लूँ,
ऋण    तुम्हारा   न     पटेगा।
बेटा   हूँ   माँ     मैं    तुम्हारा,
अंश    तेरा    न        घटेगा।