डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय-
खेद है, शोध कर रहे और करा रहे ‘शोध’ की अर्थ-अवधारणा से परिचित ही नहीं हैं। चार-छ: पृष्ठों में शोधपत्र का लेखन कर लिया जाता है और दस सन्दर्भ सामग्री के नाम अंकित कर दिये जाते हैं। ऐसे में प्रश्न है, उस शोधपत्र में शोधकर्त्ता का अपना चिन्तन कहाँ है?
आज देश के विश्वविद्यालयों में जिस प्रकार की शोध-प्रविधि, शोध-प्रक्रिया इत्यादिक हैं, वे पूर्णत: आपत्तिजनक हैं। ऐसे साहित्यकारों और राजनेताओं में एक निन्दनीय भूख बनी रहती है, जो अपनी ‘सत्ता’ का प्रभाव दिखाकर प्राय: स्वयं पर शोध कराने का प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभाव डालते रहते हैं। अपने देश में मन्त्री, मुख्यमन्त्री, विधानसभाध्यक्ष, राज्यपाल इत्यादिक ऐसे सत्तापुरुष हैं, जिनके प्रति अनावश्यक और अवैध आभार-ज्ञापन करने के लिए ‘शोध-निर्देशक’ को एक ऐसा बहुत अच्छा अवसर उपलब्ध हो जाता है, जिसके माध्यम से वह कथित प्रभावकारी व्यक्तियों पर शोध कराकर “अपना उल्लू सीधा” करता रहता है और देखते-ही-देखते, उसकी सभी अयोग्यताएँ ‘योग्यता’ का रूप धारण कर लेती हैं। इतना ही नहीं, तथाकथित सत्तापुरुष केवल एक कविता अथवा कहानी अथवा उपन्यास लिखकर शोध के विषय बन जाते हैं। यह एक प्रकार की दु:खद विडम्बना है। वहीं वर्तमान में जिन योग्यतर सारस्वत हस्ताक्षर की कृतियों और उनके व्यक्तित्व पर आधिकारिक रूप से शोध होने चाहिए, नहीं होते; क्यों? इसके लिए वह अध्यापक उत्तरदायी होता है, जो शोधकर्म-हेतु विषय को स्वीकृत करता है और शोधकर्त्ता-कर्त्री का किसी-न-किसी रूप में मानसिक और शारीरिक शोषण करता है।
अब प्रश्न है, इस बौद्धिक और शैक्षिक रोग से शिक्षाजगत् को मुक्ति कैसे मिले?
(सर्वाधिकार सुरक्षित– पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १७ मार्च, २०२० ईसवी)