सई नदी की करुण कथा : पौराणिक और ऐतिहासिक नदी मर रही है

‘राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर’ देश-देशान्तर के हिन्दीसेवी और अनुरागी क्या सोचते हैं?

बहे रसधार हिन्दी की!

हिन्दी-दिवस की पूर्व-संध्या मे ‘सर्जनपीठ’ का अन्तरराष्ट्रीय आन्तर्जालिक आयोजन

‘सर्जनपीठ’, प्रयागराज के तत्त्वावधान मे हिन्दी-दिवस की पूर्व-संध्या मे ‘सारस्वत सदन-सभागार’, अलोपीबाग़, प्रयागराज से एक आन्तर्जालिक अन्तरराष्ट्रीय बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन किया गया, जिसमे जर्मनी, फ्रांस, चीन तथा भारत के साहित्यकारों, शिक्षकों, पत्रकारों, कवि-कवयित्री आदिक की सहभागिता रही।

चैसिले कारलोटे (एसोसिएट हिन्दी, बर्लिन इण्टरनेशनल युनिवर्सिटी ऑव़ अप्लाइड साइंसेस, जर्मनी) ने मुख्य अतिथि के रूप मे कहा, "नो डाउट, हिन्दी ग्रेट लैंग्वेज़ है और हमे हर तरह से इसे इण्डिया का नेशनल लैंग्वेज़ बनाना ही होगा। बट आइ थिंक, इसमे पॉलिटिकल प्रॉब्लम बहुत है; फिर भी हमे इसकी चिन्ता नहीं करनी है। हम सबको युनाइटेड होकर इसके लिए काम करना होगा।"

प्रो० गायत्री रंगास्वामी (हिन्दी-सलाहकार, पी० सी० एल० रिसर्च युनिवर्सिटी, पेरिस (फ्रांस) ने अध्यक्षीय वक्तव्य मे कहा, "पॉलिटिकल डिज़ायर ख़त्म हो चुकी है। भारत का ही प्रबुद्ध लोग इस दिशा मे आगे बढ़ सकता है। हम भी हैं; पर थोड़ा-थोड़ा। हम तो पेरिस मे रहकर जितनी पॉसिबैलिटि है, सबको करता है।"

इन्द्रकुमार दीक्षित (सचिव– नागरी प्रचारिणी सभा, देवरिया) ने कहा, ”राष्ट्रभाषा, किसी सम्प्रभु राष्ट्र की अस्मिता, एकता, अभिव्यक्ति एवं संस्कृति की पहचान होती है। हमारे देश मे हिन्दी राजभाषा के रूप मे तो स्वीकृत है; परंतु सभी राज्यों की सहमति के अभाव मे अब तक यह राष्ट्रभाषा का स्वरूप नहीं ले सकी है। सुदृढ़ तथा अखंड भारत की कल्पना राष्ट्रभाषा के बिना नहीं की जा सकती। अब समय आ गया है कि राष्ट्र के सभी घटकों को भावनात्मक रूप से जोड़ने के साथ शिक्षा,
संस्कृति, विधि, व्यापार, तकनीक़, राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अभिव्यक्ति की क्षमता रखने वाली भाषा हिन्दी, देवनागरी लिपि के साथ राष्ट्रभाषा घोषित हो; क्योंकि आज परिस्थितियाँ पहले की अपेक्षा आपसी समन्वय एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से अनुकूल हैं। सत्तर-बहत्तर वर्षोंबाद अभी भी राष्ट्रभाषा का प्रश्न अनुत्तरित है। अब जबकि केंद्र मे देश की जनता के व्यापक समर्थन से बनी एक मजबूत और दृढ़ इच्छा-शक्ति वाली सरकार विगत नौ वर्षों से सत्ता मे है और उसने अनेक राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विवादित मुद्दों का समाधान सूझबूझ, कूटनीतिक कौशल और दृढ़तापूर्वक करने का साहस दिखाया है तो एक सुखद उम्मीद जगी है कि हिन्दी को वास्तविक रूप से राष्ट्रभाषाके पद पर प्रतिष्ठित करने की दिशा मे दृढ़ता पूर्वक निर्णय लिया जाना चाहिए इसमें जो भी बाधाएं आयें उन्हें हल किया जाय।

साहित्यमहामहोपाध्याय डॉ० सुरेन्द्रकुमार पाण्डेय (चिन्तक-विचारक, प्रयागराज) ने कहा, “किसी देश की भाषा उस देश की पहचान और उसका अन्तर्भाव होती है। अन्य भारतीय भाषाओं की तरह हिन्दी की भी जननी देववाणी संस्कृत है। स्वतन्त्रता के पूर्व और आज भी सम्पूर्ण भारतवर्ष में हिन्दी सर्वाधिक लोग-द्वारा बोली जाने वाली और समझी जाने वाली भाषा है। हिन्दी हमारे जीवन मूल्यों, संस्कारों और अन्तर्मन की संवाहक है।संविधान की धारा 343 ( 1) के अनुसार भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी एवं लिपि देवनागरी है। इसी को दृष्टिगत रखते हुए संविधान सभा ने 14 सितम्बर, 1949 को हिन्दी को राजभाषा स्वीकार किया। बाद मे राजभाषा अधिनियम 1963 यथा संशोधित 1967 बनाया गया। जिसमें हिन्दी के साथ साथ कतिपय शर्तों के साथ अंग्रेजी के प्रयोग का प्रविधान एक सीमित कालावधि के लिए किया गया था; परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के 76 वर्षों बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग पूर्ववत होता आ रहा है। जहां आवश्यक नहीं है वहां भी अंग्रेजी का प्रयोग दुःखद है। दो हिन्दीभाषी लोग भी जब परस्पर अंग्रेजी में वार्तालाप और पत्र-व्यवहार करते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है कि वे अँगरेज़ी मानसिकता से ग्रस्त हैं। सरकारें भी राजनीतिक कारणों से हिन्दी को बढ़ावा देने की दिशा में उदासीन हैं, जबकि संस्कृत के अधिक निकट होने के कारण हिन्दी भाषा तुलनात्मक दृष्टि से सरल , सुबोध, कर्णप्रिय तथा वैज्ञानिक है। हर देश की अपनी राजकीय भाषा है, परन्तु हमारे देश में लगभग सौ करोड़ हिन्दीभाषी होने के बावजूद हिन्दी को राजनीतिक कारणों से राष्ट्रभाषा न बनाया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। आज हम सब यह संकल्प करें कि जहां अनिवार्य और अपरिहार्य न हो वहां हम अंग्रेजी का प्रयोग बिलकुल नहीं करेंगे।

हिन्दी हमारी मातृभाषा है, हमारी पहचान है, हमारी चेतना है, हमारी अस्मिता है और हमारे गौरवशाली इतिहास की जीवन्त साक्षी है। हमे हिन्दी के प्रति गौरव का भाव मन में रखना चाहिए। यह भाव केवल मन मे, विचार मे और भाषणो मे ही नहीं रहना चाहिए अपितु अपने दैनिक जीवन, आपसी व्यवहार और लेखनी मे भी दिखाई पड़ना चाहिए, क्योंकि बिना क्रिया के कोई भी विचार व्यर्थ है। इसकी शुरुआत हमे अपने घर से करनी होगी, जहां माता पिता और सुप्रभात की जगह मॉम, डैड और गुडमॉर्निग बच्चों को सिखाया जा रहा है। हिन्दी के प्रति हमे अपने बच्चों को भी अपनत्त्व और गौरव की अनुभूति बचपन से ही करानी चाहिए। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि हमारा विरोध अँगरेज़ी से नहीं है, बल्कि अँगरेज़ी मानसिकता से है। यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि किसी भी क्षेत्रीय भाषा और क्षेत्रीय भाषाभाषियों का विरोध हिन्दी से नहीं है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के प्रयोग में केवल अँगरेज़ी मानसिकता और अंग्रेजी भाषा ही बाधक है, न कि कोई क्षेत्रीय भाषा। जब एक राष्ट्र एक चुनाव, एक राष्ट्र एक कानून की बात हो रही है तो एक राष्ट्र एक भाषा की भी बात होनी चाहिए। हिन्दी का संरक्षण, संवर्धन और उत्कर्ष हो , यह समय की मांग है। इससे राष्ट्रीय एकता भी अक्षुण्ण होगी।”

डॉ० सरोज सिंह (प्राध्यापक– सी०एम०पी० डिग्री कॉलेज, प्रयागराज) ने कहा, ” राजभाषा हिन्दी की संप्रेषणीयता और देश के अधिकतर जिलों की भाषा के रूप मे अधिकृत होने की वजह से उसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत किया जा सकता है। हमारे अधिकतर स्वतन्त्रतासेनानियों ने भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के गौरव का स्वप्न देखा था। पुरुषोत्तम दास टंडन ने हिन्दी के गौरव के प्रश्न पर कभी समझौता नहीं किया।

शिवराम शर्मा के शब्दों में, “सच बात तो यह है कि हिन्दी को राष्ट्र भाषा तथा संघ की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का जो महत्वपूर्ण कार्य राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन ने किया, वह कार्य दूसरा नेता न कर सका। सरदार पटेल ने भी अपने संदेश में कहा था, “हिंदी का पट महासागर की तरह इतना विस्तृत होना चाहिए कि जिसमे सभी भाषाएं अपना बहुमूल्य भाग ले सकें। राष्ट्रभाषा न तो किसी प्रांत और न किसी जाति की है; वह सारे भारत की भाषा है और इसके लिए यह आवश्यक है कि सारे भारत के लोग गौरव हासिल कर सकें।” सहजता, सुबोधता, सर्वग्राही, प्रयोजनीयता तथा व्यवहारिकता के कारण राज भाषा हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थान मिलना चाहिए।”

प्रियंवदा पाण्डेय (साहित्यकार, देवरिया) का सम्मत है," हिंदी को लेकर लोग में एक ग्रंथि बन गई है कि यह स्मार्ट भाषा नहीं है, उस ग्रंथि को पुष्ट करने में वर्तमान शिक्षाप्रणाली  भी सहायक  सिद्ध हो रही है, तो वहीं सरकारों का अनुचित रवैया भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने से रोक रहा है, जबकि हिंदी दुनिया की सबसे अधिक बोली जाने वाली तीसरी भाषा है। यह न वैज्ञानिक है बल्कि भारत के व्यापक क्षेत्र की मातृभाषा भी है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए सबसे पहले सरकारों का जागरूक होना आवश्यक है तथा आम जनमानस का हिन्दी के प्रति संकीर्ण भाव का त्याग आवश्यक है। यह भी आवश्यक है कि प्रति व्यक्ति इसे अपने व्यवहार मे आत्मसात कर अपने घर मे बेघर और उपेक्षित हिन्दी को उसका मान और स्थान दिलाते हुए, हिन्दी का राष्ट्रभाषा बनना सुनिश्चित करे।
आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय (आयोजक, भाषाविज्ञानी, प्रयागराज) ने कहा, "हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए हिन्दीतर राज्यों की जनता का भावनास्तर पर हृदय जीतना होगा। इसके लिए प्रतिवर्ष हिन्दीतर राज्यों मे जाकर वहाँ की सभ्यता और संस्कृति को जोड़ते हुए, सामाजिक और साहित्यिक उत्थान के काम करने होंगे। उन्हें हिन्दीभाषाभाषी राज्यों मे निमन्त्रित कर हिन्दीप्रधान ग्रन्थों के हिन्दीतर भाषा मे अनुवादिक कार्यों से जोड़ना होगा। इससे एक-दूसरे की भाषा के प्रति आकर्षण का बीजारोपण होगा और एक दिन हिन्दी को अपना लक्ष्य प्राप्त हो जायेगा।''

यश मालवीय (गीतकार, प्रयागराज) ने कहा, "भाषा को जब तक एक मूल्य के रूप मे धारण नहीं किया जायेगा, वह केवल राजनीति की बिसात पर इसी तरह बिछती रहेगी और साल दर साल एक सालाना जश्न ही औपचारिक रूप से मनाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान ली जाती रहेगी। हिन्दी जब हमारी राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ेगी तभी वह राष्ट्रभाषा का रूप ले सकेगी। हमें हिन्दी को रोजमर्रा के व्यवहार मे लाना होगा, ऐसा करने से ही हर दिन 14 सितम्बर हो जायेगा और हमारी हिन्दी कर्मकाण्ड से मुक्त होकर अपना खोया हुआ गौरव हासिल कर सकेगी।"

प्रकाश शंकर राव चिकुर्डेकर (हिन्दीविभागाध्यक्ष– शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर, महाराष्ट्र) ने कहा, “उच्च शिक्षा का माध्यम हिंदी होना चाहिए। इंजीनियरिंग, मेडिकल, लाॅ पाठ्यक्रम हिंदी में बनाये और पढ़ाने की सुविधा हो। सभी उच्च पदस्थ परीक्षाओं का माध्यम हिन्दी हो और हिन्दी-माध्यम मे परीक्षा देने वाले छात्र-छात्राओं को 10 प्रतिशत अंक अधिक देने की सुविधा हो। सूचना प्रौद्योगिकी, मेडिसिन, देश-विदेश के संपर्क के माध्यम आदि के जरिए विशेष योगदान देने वाले हिंदी सेवायों को ग्रामीण स्तर तक सम्मानित करने की योजना बना दी जाए। सभी सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी को नम्बर दो और हिन्दी को नम्बर एक भाषा करने के लिए धीरे-धीरे योजना बनायी जाये।

अंग्रेजी माध्यम स्कूल कॉलेज में हिन्दी विषय मे अध्ययन करने वाले छात्रों को एक विशेष श्रेणी प्रदान करने की योजना हो और प्रादेशिक भाषाओं के साथ हिन्दी का अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाए। यहां तक कि सभी न्यायालय के सभी वादों और फैसलों के लिए हिन्दी का प्रयोग अनिवार्य रूप से करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक व्यापक अभियान चलाया जाए। समृद्ध साहित्य परम्परा को ग्रामीणजन तक पहुंचने की योजना आवश्यक है।

डॉ० घनश्याम भारती (हिन्दीविभागाध्यक्ष– शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गढ़ाकोट, सागर, म० प्र०) ने कहा, "राजभाषा वह भाषा होती है जो सरकारी कामकाज में प्रयुक्त होती है और राष्ट्रभाषा वह भाषा होती है जो उस राष्ट्र के सर्वाधिक जनता के द्वारा बोलचाल में प्रयुक्त की जाती है। इस दृष्टि से हिन्दी को राजभाषा का दर्जा तो प्राप्त हो गया है; लेकिन अभी तक हिन्दी राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं कर पायी है। राजभाषा हिन्दी, राष्ट्रभाषा तभी बन सकती है जब राष्ट्र में रहने वाले सर्वाधिक लोग इस भाषा के प्रति रुचि जाग्रत् करें। आज लोग के द्वारा बोलचाल में अंग्रेजी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग अधिक किया जा रहा है; लेकिन यदि संविधान में राजभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता दी गई है तब हमारा नैतिक दायित्व बनता है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में सहमति दें। हमारी सरकारें भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने में अपनी रुचि दिखाएं। इस हेतु देश में व्यापक स्तर पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने को लेकर आन्दोलन होने चाहिए।" 

नीता शर्मा (साहित्यकार एवं कवयित्री, शिलांग, मेघालय) ने बताया, “भारत देश की लगभग पैंतालीस प्रतिशत आबादी द्वारा बोले जाने वाली हिन्दी आज भी अपने ही घर में अपने अस्तित्व को पूर्णतया स्थापित करने के लिए जनमानस से गुहार लगा रही है। असलियत तो यह है कि आज भी देश की आधी आबादी इस बात से अवगत ही नहीं कि हिंदी देश की राजभाषा है, न कि राष्ट्रभाषा। भारत बहुभाषी देश है, जिसमें केवल बाईस भाषाओं को ही राष्ट्रीय स्वीकृति मिली है, जिनमें से हिन्दी एकमात्र ऐसी भाषा है, जिसे देश के हर कोने में बोला अथवा समझा जाता है। यह सभी भाषाओं के बीच सेतु का कार्य करती है। यही उसके राष्ट्रभाषा बनने की सामर्थ्य है। संविधान के नियमों मे बंधकर केवल सरकारी कार्यों में प्रयोग होनेवाली भाषा हिन्दी राजभाषा के रूप में सिमटकर रह गई है। वर्तमान में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं; लेकिन अभी भी इस दिशा में हमें बहुत परिश्रम करना है; क्योंकि आज भी देश में ऐसी बहुत सी शक्तियां हैं, जो स्वार्थ के कारण नहीं चाहतीं कि हिंदी को उसका सही स्थान प्राप्त हो।
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।”
भारतेंदु जी द्वारा लिखी ये पंक्तियां यदि जन-जन तक पहुंच जाएं और हर व्यक्ति इनका सही मायनों में अर्थ समझने लगे तो हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने से कोई नहीं रोक सकता। पश्चिम देश की भाषा को विद्यालयों में केवल एक अतिथि के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए, जबकि हिंदीभाषा, जो यहां पैदा हुई, पली-बड़ी और वर्षों से यही उसका निवास स्थान है, को हम अतिथि भाषाओं के समक्ष हेयदृष्टि से देखते हैं; उसका अपमान करते हैं, जो कदाचित् असहनीय है। हमें अपने बच्चों को हिंदी का ज्ञान देना और उसकी महत्ता को बताना अति आवश्यक है। हिन्दी भारत देश की प्राणवायु है, जिसको बचाना हमारा कर्त्तव्य है; क्योंकि यह हमारी संस्कृति और संस्कार में निहित है। इसके लिए हमें अपने साहित्य को समृद्ध करना होगा। केवल हिंदी पखवाड़े में इसे सीमित न रखते हुए, हर दिन इसके प्रचार-प्रसार के लिए कार्यरत रहना होगा। हिन्दी-भाषा को उसका उचित स्थान दिलाने के लिए हमें एक ऐसी मशाल जलानी है, जिससे हमारी आने वाली पीढ़ियों को हिन्दी की लौ से न केवल भारत, बल्कि विश्वभर जगमगाता दिखाई दे।”

घनश्याम अवस्थी (सहायक अध्यापक, गोंडा) ने कहा, “हिन्दी-भाषा भारत में सबसे अधिक बोली जाती है और विश्व में यह तीसरी सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषा है। इस स्थिति में भी यह भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है। यह स्थिति चिन्ताजनक है। भारत के संविधान के अनुच्छेद ३४३(१) के अन्तर्गत इसे राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। यह व्यवस्था भी बहुत बहस के बाद १४ सितम्बर, १९४९ ई० को स्वीकृत हुई थी। इसलिए तबसे अब तक हम केवल १४ सितम्बर को हिन्दी-दिवस मनाते आ रहे हैं। १९६५ ई० में भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान करना चाहा था; लेकिन कुछ दक्षिण के भारतीय राज्यों के कड़े विरोध के कारण हिन्दीभाषा को समुचित गौरव नहीं मिल सका था।
प्रश्न है– क्या हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान देना, वास्तव में, उतना कठिन है जितना कि सिद्ध होता आया है? इसका उत्तर है– नहीं। वास्तव में, इस कार्य में बाधक है, क्षेत्रीय दलों की संकुचित राजनीति, इसके अलावा और कुछ नहीं। आज हिन्दीभाषा पहले से अधिक समृद्ध और ग्राह्य है। यह एकमात्र भाषा है, जो पूरे देश को एक सूत्र में जोड़ती है; केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार को सर्वदलीय बैठक आहूत करनी चाहिए और आम सहमति से हिन्दीभाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान करना चाहिए।”

आशीषकुमार शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार, प्रयागराज) ने कहा, "भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 (1) में हिंदी को देवनागरी लिपि के रूप में राजभाषा का दर्जा दिया गया है। हिंदी हमारी मातृभाषा है राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी कहीं भी पंजीकृत नहीं है और वास्तव में भारत की कोई आधिकारिक राष्ट्रभाषा है ही नहीं। हिंदी हमारे देश की पहचान है भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सबको एक मंच पर एकत्रित करने में हिंदी का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। गांधी जी ने कहा था, राष्ट्रीय व्यवहार में हिंदी का प्रयोग देश की एकता और उन्नत के लिए आवश्यक है, फिर भी देश का दुर्भाग्य है कि हिंदी देश में सबसे अधिक राज्यों में बोली जाने वाली भाषा होने के बाद भी राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं प्राप्त कर सकी। वर्तमान में हिंदी राष्ट्रीय अस्मिता और अभिमान का प्रतीक है। हिंदी में हम अपनी भावनाओं को जितना सहज रूप से व्यक्त कर सकते हैं उतना अन्य भाषाओं में नहीं। अंग्रेजों की सियासी हुकूमत को देश से बाहर करने में हिंदी के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिलाने हेतु देश की कई संस्थाएँ और समितियाँ ने अपने-अपने ढंग से तमाम प्रयास करती आयी हैं, फिर भी हमारी संस्कृति को दबाने वाली अंग्रेजी भाषा को हम देश के महत्त्वपूर्ण विभागों से निकाल कर बाहर नहीं कर पाए और कहीं न कहीं यह हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिलाने में बाधक है, जबकि पूरे देश में किसी भी राज्य में चले जाइए हिंदीभाषी लोग हर जगह है। इतना व्यापक विस्तार होने के बाद भी अभी तक हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा न प्राप्त होना, अत्यन्त दुर्भाग्य की बात है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को भले ही दर्जा न प्राप्त हुआ हो फिर भी हिंदी हमारे आत्मा और चित्त में राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रभाषा के रूप में ही बसी है। आधिकारिक रूप में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का स्थान दिलाने के लिए एक क्रांतिकारी आंदोलन की आवश्यकता है।

डॉ० राघवेन्द्र कुमार ‘राघव’, (वरिष्ठ पत्रकार, हरदोई) का मत है, “हिन्दी को राष्ट्रभाषा न बनने देने के पीछे सबसे बड़ा हाथ यहाँ की कुत्सित राजनीति का है। देश के विद्वज्जन को सर्वाधिक विचार इसी विषय पर करने की आवश्यकता है। हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है, जिसके पास विपुल शब्द सामर्थ्य है और असीमित साहित्यिक सम्पदा भी। इस दृष्टि से हिन्दी हर हाल मे राष्ट्रभाषा बनने के योग्य है। यहाँ पर एक और प्रश्न उभरता है– हमारा राजभाषा-चरित्र कितना प्रासंगिक है? क्या वास्तव मे, हिन्दी को राजभाषा का महत्त्व दिया गया है या केवल संवैधानिक प्रपत्रों मे राजभाषा लिखकर हिन्दीजन-मन को छला जा रहा है। आज हमें राजभाषा के विरुद्ध लड़ना होगा। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना बहुत आसान काम नहीं है। भारत बहुधर्मी और बहुभाषीय है। यहाँ भाषा को लेकर राज्य बने हैं, ऐसे मे, हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाना बहुत ही दुष्कर कार्य है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा की संवैधानिक मान्यता दिलाने की दिशा में एक मत बनाकर और जनमत के सहारे कार्य करना होगा।”

आदित्य त्रिपाठी (सहायक अध्यापक, बे० शि०, हरदोई) का कहना है, ''हिन्दी हथियारों के बल पर थोपी नहीं जा सकती। इसके लिए हिन्दी को समृद्धतर करना होगा। स्कूल-स्तर पर हिन्दी को शिक्षा में अनिवार्यत: लागू करना होगा। हम भारतीय दूसरों की लकीरों के साथ छेड़छाड़ करते हैं; दूसरों की बुद्धि की ओर देखते हैं। आज विश्वस्तर पर हिन्दी का जितना विस्तार है, उतनी अन्य किसी भाषा की नहीं है, उसके बाद भी हम हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिला पाने में समर्थ नहीं दिखते। इसका एक ही कारण है, इच्छाशक्ति की कमी। वर्तमान में हिन्दी विश्व मे सर्वाधिक बोली और समझी जाती है। विश्व के १५० से अधिक विश्वविद्यालयों में हिन्दी का शिक्षण-प्रशिक्षण किया जाता है। विदेश से इतर हिन्दी की स्थिति उसके देश में ही विचारणीय और शोचनीय है। यही आचरण हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बनने देता। इस समय अधिकतर काम हिन्दी में हो रहे हैं। देश को एक सूत्र में बाँधने का काम हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में बनाकर ही करना होगा।"