● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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‘छठि’ के नउवा सुनि के आपन गाँव, घर, दुआरि, डेरा, खरिहान, बर-बनिहार आ पाँड़े पोखरा याद आवे लागल। मुँड़ी पर फल-फूल, सिंघाड़ा, ठेकुआ, पूआ-मलपुआ, पूड़ी, भीगल चाना, उखि के गेँड़, नीबू, पटउरा, सरीफा, मुरई (पतई लेके) तिल-तिलौरी, गुर, बतासा खुटकी, लचिदाना, कोन के हलुआ से भरल सूप, सूपली, दीया-दीयरी, अगरबत्ती, आ रँगल-चँगल बड़की डलिया-दौरी रखल सब याद आवे लागल।
लोरि रुके के नाव नइखे लेत। गँउआ के आपन बचपन अँखिया मे जीये लागल। उहो एगो बेरा रहे। अब त सब हेनर-बेनर होई गईल। जब अपने खूनवा पटीदारो से गइल-गुजरल बनल बुझाए लागल त औरी के का कहल जाई। अपने घरवा के लोगवा एतना चटक आ चटकोर लउके लागल कि मानवाँ फाटे लागल।
ना अब गाँव बा, ना घर बा आ ना दुआरि रहल; ना डेरा बा, ना खेत बा, ना खरिहान बा, ना गाइ बा, ना बैल बा, ना बछवा-बछिया बीया, आ नाहीँ बाग-बगइचा बा। सब बिलाइ गइल, उधियाइ गइल; हेनर-बेनर हो गइल। सब बेकति मरि गइल, आ जीअतो मरला लेखा बुझाये लागल। हेराइ गइल; बिछुड़ि गइल आ भुलाइ गइल गँउवा के डाँड़-डँड़ार। अब त केहू के खोजहूँ के मन ना करेला। जब दियानत मे कवनो खोटि आ जाला नू त मनवा सब केहू से फाटि जाला। ना ऊधो के लीहल आ ना माधो के दीहल। ना मूअला मे आ न जियला मे। एही से नू कहल जाला, एइजा सब केहू स्वारथ के पुतला बा।
आ ईहो साँचि बा ओने की ओर से आपन जिनगी बैरंग चिट्ठी-पतर लेखा होई गइल बा।
इ त एगो हावा के झँकोर हवे आ भाव के हिलोर हवे। मनवा ना मानल ह त लिखि देहनी हाँ; बाकिर इहो बतिया सही बा कि इ पानी के बुदबुदवा हवे, जलदीये फूटि जाई।
जइसे घाव पाकि जाला त फोड़ा बनि जाला आ अचके मे फूटि-फाटि के अकोर हो जाला; ओही तरी, हमार छठि आ घरि-दुआर के मोह फूटि-फाटि के अकोरि होइ गइल बीया। साँचो कही त अब ना त छठि मइया बाड़ी आ ना सँचका पूजाई। खाली बा त एगो डरि बा; जब तक जीयत बाड़ू मनावत रह छठि के।
कुछू बुझाइल कि ना हो।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ७ नवम्बर, २०२४ ईसवी।)