दृष्टि परे दर्शन हुआ, योग-क्षेम अभिशाप

एक–
जीवन अब अनुवाद है, मूल रह गया भूत।
भाव अर्थ से हीन है, कथ्य बना अवधूत।।
दो–
दृष्टि-परे दर्शन हुआ, योग-क्षेम अभिशाप।
परे परा अपरा हुई, जल से जैसे भाप।।
तीन–
कुन्द प्रखरता ठोस है, प्रतिभा भी बेजान।
मेधा बलि है चढ़ रही, मान हुआ अपमान।।
चार–
कुछ पल समय उदार है, कुछ पल हैँ अनुदार।
प्रश्रय निर्मम बना रहा, आँखेँ हैँ दो-चार।।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ७ नवम्बर, २०२४ ईसवी।)