भारतीय समाज को ‘धर्म’ अथवा ‘मज़्हब’ की लोरियाँ सुनाते देशद्रोही!

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

जो कथित हिन्दू अपने सेवाकाल मे रिश्वतख़ोर रहे हैं और हैं; अपराधी रहे हैं और हैं, उनमे से अधिकतर कथित ‘न्यू इण्डिया की सरकार’ की जनघाती नीतियों के पक्षधर बने हुए हैं। उन्हें महँगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त औसत जनता के प्रति न तो सह-अनुभूति है और न ही सम-अनुभूति। ऐसे दरिन्दे समाज मे जीने के अधिकारी बिलकुल नहीं हैं, जो सरकारी प्रताड़ना और निरंकुशता को देखते हुए भी ‘सिफ़लिस’ के रोगी बने हुए हैं। अधिकतर ऐसे हैं, जो अपनी अयोग्यता के बावुजूद ‘आरक्षण, रिश्वत, नक़्लख़ोरी, पहुँच आदिक के आधार पर सरकारी नौकरी पा गये हैं; हर तरह के भ्रष्टाचार मे लिप्त हैं और ‘न्यू इण्डिया-सरकार’ का प्रशस्ति-गायन कर रहे हैं; क्योंकि उनके रक्त मे ‘हिन्दू’ नामक ‘विषाणु’ घुस चुका है। यही कारण है कि वह विषाणु शेष समाज को दुष्प्रभावित कर रहा है।

वैसे लोग यदि बुद्धिजीवी हैं तो उनकी ‘बुद्धिजीविता’ को धिक्कार है। जिस बुद्धि मे न तो भावना का स्पन्दन (कम्पन; धीरे-धीरे गति करना-हिलना) हो और न ही संवेदना का, वह ‘पाषाण बुद्धि’ कहलाती है, जिसे ‘कुबुद्धि, दुर्बुद्धि तथा पापबुद्धि’ भी कहते हैं। उनमे से अधिकतर ऐसे हैं, जिन्हें नितान्त निकृष्ट और निर्मम कोटि के स्वार्थ ने ग्रस लिया है। ऐसे लोग आज भारतीय समाज को रुग्ण कर चुके हैं; जर्जर कर चुके हैं। उन्हें परकीय (पराया, दूसरे का) धर्म (कर्त्तव्य) से अधिक ‘स्वकीय’ (अपना, स्वयं का) धर्म प्यारा है। इसी परकीयता और स्वकीयता का द्वन्द्व ‘न्यू इण्डिया’ और ‘भारत’ के मध्य जारी है। इन दोनो के ही संघर्षण से जो द्युति (कान्ति, चमक, आभा) फूट रही है, उसमे ‘तम’ और ‘सत्’ तत्त्वों की प्रधानता है। ‘तम’ निकृष्ट कोटि का तत्त्व है, जो ‘न्यू इण्डिया’ का प्रतिनिधित्व करता दिख रहा है और ‘सत्’ उत्कृष्ट कोटि का तत्त्व है, जो ‘भारत’ के प्रतिनिधि के रूप मे अपना सात्त्विक प्रभुत्व स्थापित किये हुए है।

निस्सन्देह, रावण, कंस, हिरण्यकश्यप, महिषासुर, शुम्भ-निषुम्भ, मधुकैटभ असुरादिक ‘तामसिक’ प्रवृत्ति के थे, जो यावज्जीवन (जीवनपर्यन्त, आजीवन; ‘यावद्जीवन-यावद्ज्जीवन’ अशुद्ध हैं।) ‘साधु’ प्रकार के जनमानस के मध्य अपना ‘आतंक’ परिव्याप्त किये रहे; जो तब तक बना रहा जब तक ‘पाप का घट’ अर्द्ध-रिक्त रहा; परन्तु पापघट की परिपूर्णता होते ही उन सबका महाविनाश हुआ था।

उन मूर्खों का अभाव नहीं है, जो ‘सनातन धर्म’ की रट लगाते आ रहे हैं; किन्तु उसके अर्थ, अवधारणा, अभिप्राय तथा आशय से अनभिज्ञ हैं। जो शाश्वत है; चिरन्तन है; स्थायी है; कभी समाप्त नहीं होता, वह ‘सनातन’ कहलाता है। उसके साथ जो ‘धर्म’ शब्द जोड़ दिया गया है, वह सनातन के ‘चरित्र और प्रवृत्ति’ को सुस्पष्ट करने के लिए है। ये जो हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, जैन, बौद्ध, पारसी, कनफ्यूशियस इत्यादिक ‘सांसारिक धर्म’ अपने-अपने उल्लू सीधा करने के लिए बनाये गये हैं, उनमे से किसी का भी अस्तित्व चिरन्तन (सदा बना रहनेवाला) नहीं है; ये सभी क्षणभंगुर हैं।

विचार करें, शिशु जब उत्पन्न होता है तब नितान्त नंगा होकर; उसके बाद समाज उस पर अपना जातीय संस्कार आरोपित करता है। हमे भूलना नहीं चाहिए कि किसी भी जीवधारी (वनस्पति आदिक भी) का कर्म समाप्त नहीं होता; वह ‘सनातन’ बना रहता है। वास्तव मे, यही ‘सनातन धर्म (कर्त्तव्य) है।

वे, जो भगवाधारी, श्वेतधारी, दण्डधारी, दाढ़ीधारी, टोपीधारी तथाकथित पण्डित-मौलवी दिखते हैं न, ये सभी भारतीय समाज के मूल मे ‘दीमक’ और ‘घुन’ का चरित्र जीते आ रहे हैं। उन्हें सामाजिक उत्थान से कोई प्रयोजन (सरोकार, हेतु) नहीं; उनका हेतु एकमात्र रहता है, उनके वक्तव्य का प्रभाव नकारात्मक रूप मे परिलक्षित होता रहे, ताकि उनका एकच्छत्र (‘एकछत्र’ अशुद्ध है।) साम्राज्य बना रहे। वे सब तो आपस मे ही वर्चस्व-स्थापना के लिए घातक संघर्ष करते रहते हैं और एक-दूसरे की हत्या कर कथित धर्मासन पर आसीन होते हैं; मदारिस (मद्रस:/मद्रसा का बहुवचन; ‘मदरसा’ अशुद्ध है।) और मन्दिरों-मठों के भीतर जिस प्रकार के कुकर्म-दुष्कर्म की घटनाएँ आये-दिन घटती आ रही हैं, ऐसे नर-नारी-पिशाचों और घोर पापजीवीयों के मन्दिर-मस्जिदों तथा अन्य कथित धर्मो के उपासनास्थल के प्रति कैसी आस्था? ऐसे ही लोग ‘मन्दिर’, ‘मस्जिद’ तथा अन्य उपासनास्थल का निर्माण करवाकर भारतीय समाज मे दीर्घकाल से ‘घृणा की दीवार’ खड़ी करते आ रहे हैं। जब तक ऐसे विधर्मियों की समाप्ति इस धरती से नहीं हो जाती, भारतीय ‘समरसता’ को ग्रहण लगा रहेगा और भारतीय समाज प्रेम और सौमनस्य से परे होकर घृणा और वैमनस्य की आराधना करते दिखेगा।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १४ जून, २०२२ ईसवी।)