‘आचार्य पं॰ पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला’ में आज सीखें किसी भी प्रकार की ‘लेखन’ और ‘रचना’ कैसे करें?

प्रथमत: ‘लेखन’ और ‘रचना’ की वस्तुपरकता और विषयपरकता पर दृष्टिनिक्षेपित करना अत्यावश्यक है। इन दोनों शब्दों की अर्थ, अवधारणा तथा परिभाषा में भिन्नता है। ‘लेखन’ तो किसी भी प्रकार का हो सकता है; परन्तु ‘रचना’ लेखन से भिन्न है। लेखन मौलिक है और अमौलिक भी, जबकि रचना ‘नितान्त मौलिक’ है। लेखन के अन्तर्गत लेखक कृत्रिमता के मार्ग पर भी बढ़ता है, जबकि रचना मात्र ‘नैसर्गिक पथ’ पर अग्रसर रहती है। यही कारण है कि ‘लेखन के मार्ग’ पर बढ़नेवाला मात्र ‘लेखक’ कहलाता है, जबकि ‘रचनापथ’ का बटोही ‘रचयिता’/’सर्जक’/ ‘प्रणेता’ कहलाता है।

किसी भी प्रकार के लेखन के लिए उपयुक्त और समय-सत्य भाषा-शैली का होना अनिवार्य है। भाषा-शैली एक प्रकार का ‘शिल्पगत संस्कार’ है। विषय-परिवेश की माँग पर भाषा-शैली में परिवर्त्तनशीलता का प्रवाह कथ्य, तथ्य तथा सत्य को शक्त बनाता है (‘सशक्त’ का प्रयोग अशुद्ध है।) है। यही कारण है कि किसी भी प्रकार के लेखन से पूर्व लेखक के मानस-पटल पर विषय की ‘भूमिका’ ( वक्तव्य-विषय की पूर्व-सूचना) सुस्पष्ट रहनी चाहिए। इतना ही नहीं, लेखक जिस परिवेश अथवा वातावरण से प्रभावित होकर विषय का चयन करता है, उसे उस परिवेश अथवा वातावरण का संज्ञान रहना चाहिए, तभी वह प्रभावित पक्ष को समझकर उन्हें अपने दृष्टिपथ पर लाने में क्षम (‘सक्षम’ शब्द का प्रयोग अशुद्ध है।) हो सकता है। जब कोई लेखक विषय के अनुरूप लेखन करता है तब निस्सन्देह, उसे पाठकप्रियता अर्जित होती है।

किसी भी प्रकार के लेखन में ‘तथ्य’ का होना ‘अनिवार्य अनुशासन’ है; क्योंकि उसी के आधार पर रचना-प्रवाह गति पकड़ता है और उसके सोद्देश्य लेखन की प्रामाणिकता भी सिद्ध होती है। सामान्यत: लेखनान्तर्गत तथ्य का होना आवश्यक है।

विधा पद्य हो अथवा गद्य (साहित्य की यही दो विधाएँ हैं, शेष विषय होते हैं।), उक्त अनुशासन का संरक्षण और निर्वहन करना अपरिहार्य है। पद्य-रचनान्तर्गत शब्दशक्ति (अभिधा, लक्षणा तथा व्यंजना) और काव्यांग (रस, छन्द तथा अलंकार) की शीर्षस्थ महत्ता रहती है; जबकि गद्यलेखनान्तर्गत शब्दशक्ति, मुहावरे, कहावतें तथा लोकोक्तियों की महती भूमिका रहती है।

आइए! लेखन और रचना-प्रक्रिया से जुड़ें।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १३ जुलाई, २०२० ईसवी)