“डंके की चोट पे” अब २०१८ वाँ वर्ष जीना है

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय


पौने तेरह महीने तू-तू, मैं-मैं और न जाने क्या-क्या लोग करते रहे हैं और जैसे ही तेरहवें महीने के गर्भ से २०१८ वाँ फुदकने की तैयारी में है, लोग शिकवा-शिकायत-गिला की गठरी और मुआफ़ीनामा के कागज-पत्तर अपने सिर और कन्धे पर लिये सरे आम हो गये हैं।
सत्य तो यह है कि इधर, वर्ष २०१८ कुछ डग भरेगा, उधर, उसके मुण्डन-संस्कार से पहले ही अपने मुरचाये म्यान से मुग़लिया तलवार खिंच कर, ”तेरी माँ की, तेरी बहन की” ‘न्यू इण्डिया’ वाली माला की जाप में लोग-बाग़ लग जायेंगे।
मर्द वह है, जिसने दुश्मनी की तो ‘दुश्मनी’; दोस्ती की तो ‘दोस्ती’, हिजड़ोंवाली स्थिति सेहत और समाज के लिए घातक होती है।
अपने रमता जोगी के लिए जैसे “तीरघाट वैसे मीरघाट”। जो कुछ भी बदलेगा, उसमें मेरी ‘सामर्थ्य’ की भूमिका रहेगी; पुरुषार्थ का बल रहेगा तथा अध्यवसायिकता का आधार संलक्षित होगा। अस्तु, कहीं-कोई परिवर्त्तन नहीं, जीने-मरने का अन्दाज़ वही रहेगा, जो अब तक रहा है।
क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ, राष्ट्रवाद! तू अमर रहे।