आज़ादी के नाम पर ‘जिसकी लाठी उसकी भैँस’

‘सर्जनपीठ’ की ओर से आयोजित स्वतन्त्रता-विषयक अन्तरराष्ट्रीय परिसंवाद

'सर्जनपीठ', प्रयागराज की ओर से सतहत्तरवें स्वतन्त्रतादिवस की पूर्व-संध्या मे 'स्वतन्त्रता का अर्थबोध और लोकधर्म' विषयक एक अन्तरराष्ट्रीय आन्तर्जालिक बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन 'सारस्वत सदन-सभागार' अलोपीबाग़, प्रयागराज से किया गया था, जिसमे मुख्य अतिथि के रूप मे डॉ० विवेकमणि त्रिपाठी (एसोशिएट प्रोफ़ेसर– हिन्दी, क्वान्ग्तोंग विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, चीन) ने बताया, "स्वयं निर्मित तन्त्र मे बद्ध होकर राष्ट्र एवं मानवमात्र के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वहण करना ही स्वतन्त्रता है। हमारी सनातन परम्परा एवं मान्यताएँ लोकधर्म की संवाहिका रही हैँ।'' लोकतन्त्र से बद्धमूल हमारी संस्कृति दूसरों की स्वतन्त्रता के बलात् अपहरण मे विश्वास नहीं करती है।'' 

डॉ० नीलम जैन (विज़िटिंग प्रोफ़ेसर– स्टेट युनिवर्सिटी ऑव़ अमेरिका) ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन मे कहा, ”यदि कोई अपनी स्वतन्त्रता के प्रति निषेधात्मक कार्य करता है तो वह अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारने के समान होता है। इससे देश का शक्तिबोध और सौन्दर्यबोध कुण्ठित होता है, परिणामतः राष्ट्र का विकास अवरुद्ध होता है। अनुशासन कर्त्तव्यपालन, श्रम- विवेक नियन्त्रित अधिकार प्रयोग आदि के द्वारा स्वतन्त्रता-संरक्षण में अप्रतिम योगदान किया जा सकता है। यही हमारा लोकधर्म है।”

 आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय (आयोजक, भाषाविज्ञानी, प्रयागराज) ने बताया, ''क्या स्वतन्त्रता-सेनानियों ने योँ ही कहकर अपने सीने पर गोलियाँ खायी थीँ, "कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियो! अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो?" जो हमारे रक्षक कहे गये हैँ, वही हमारे लिए भक्षक के रूप मे सिद्ध होते आ रहे हैँ। अत्याचार, अनाचार, कदाचार अपने चरम पर दिख रहे हैँ; "जिसकी लाठी उसकी भैँस'' हर पल चरितार्थ हो रही है; व्यवस्था सिर झुकाकर चलने का आदेश करती है और जैसे ही सिर झुकता है, लगता है, मानो किसी ने बलभर प्रहार कर उस सिर को हमेशा के लिए झुका दिया हो।''

डॉ० राघवेन्द्र त्रिपाठी 'राघव' (वरिष्ठ पत्रकार, हरदोई, उत्तरप्रदेश) ने कहा, "स्वतन्त्रता की भावना हमे ऊर्जस्वित कर देती है। ऊर्जा से लबरेज़ हम अनुशासन को नज़रअंदाज़ कर, अनेक विचारधाराओँ मे से किसी के दास बन जाते हैं। जाने-अनजाने हम स्वतन्त्रता की बेड़ियोँ मे जकड़े हुए व्यवस्था की ग़ुलामी करने लगते हैँ। हम भारतीय स्वतन्त्रताबोध से सदैव अनभिज्ञ रहे हैं और हमारी इसी आदत ने ज्ञान-विज्ञान की उर्वर धरा को बाँझ बना डाला है।''

विनायक राजहंस (वरिष्ठ पत्रकार, लखनऊ, उत्तरप्रदेश) ने कहा, “कहने को तो हम ७७ साल पहले अँगरेज़ों से आज़ाद हो गये थे; लेकिन बहुत-से ऐसे मसले अभी हैँ, जिनसे आज़ाद होना बाक़ी है। देश की जनता आज भी भ्रष्ट, पतित और बेईमान राजनेताओँ और अधिकारियोँ के जाल मे फँसी हुई है। वह न तो आज़ादी से जी पा रही है और न ही स्वतन्त्र रूप से साँस ले पा रही है। आज के राजनेता सिर्फ़ सत्ता के लिए काम करते हैँ; उन्हेँ जनता के हित से कोई सरोकार नहीँ।”