आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
एक–
देश ग़ुलामी जी रहा, हम पर है परहेज़।
निजता सबकी है कहाँ, ख़बर सनसनीख़ेज़।।
दो–
लाखोँ जनता बूड़ती, नहीं किसी को होश।
“त्राहिमाम्” हर ओर है, जन-जन मेँ आक्रोश।।
तीन–
प्रश्न ठिठक कर है खड़ा, उत्तर भी है गोल।
नैतिकता दिखती यहाँ, जैसे फटहा ढोल।।
चार–
चरम विडम्बना दिखती, घायल दिखता देश,
चीरहरण कर घूमते, बदल-बदलकर वेश।।
पाँच–
राजनीति अति क्रूर है, संवेदन से दूर।
मानवता से दूर भी, दिखती केवल सूर।।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १५ अगस्त, २०२४ ईसवी।)