चीरहरण कर घूमते, बदल-बदलकर वेश!

एक–
देश ग़ुलामी जी रहा, हम पर है परहेज़।
निजता सबकी है कहाँ, ख़बर सनसनीख़ेज़।।
दो–
लाखोँ जनता बूड़ती, नहीं किसी को होश।
“त्राहिमाम्” हर ओर है, जन-जन मेँ आक्रोश।।
तीन–
प्रश्न ठिठक कर है खड़ा, उत्तर भी है गोल।
नैतिकता दिखती यहाँ, जैसे फटहा ढोल।।
चार–
चरम विडम्बना दिखती, घायल दिखता देश,
चीरहरण कर घूमते, बदल-बदलकर वेश।।
पाँच–
राजनीति अति क्रूर है, संवेदन से दूर।
मानवता से दूर भी, दिखती केवल सूर।।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १५ अगस्त, २०२४ ईसवी।)