कब तक अशुद्ध नाम ‘भारद्वाज आश्रम’ पढ़ते रहोगे?– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

प्रयागराज मे ‘आनन्द भवन’ के समीप ‘विश्वगुरु’ ‘भरद्वाज मुनि’ का आश्रम स्थित है। वही भरद्वाज-आश्रम, जहाँ प्रवास करते हुए, दस हज़ार विद्यार्थी प्रतिदिन अध्ययन किया करते थे। भरद्वाज मुनि को ही विश्व का प्रथम कुलाधिपति और कुलपति कहा गया है। इतना ही नहीं, प्रयाग को बसाने का श्रेय भी भरद्वाज मुनि को ही जाता है।

यहाँ यह संदर्भ यों ही नहीं उभरा है; बल्कि इसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण है, जो प्रयागराज के विद्वज्जन, अध्यापक-अध्यापिकाओं तथा अन्य प्रबुद्धवर्ग की चेतनाशीलता और जागरूकता पर नाना प्रश्न खड़े करता है।

उल्लेखनीय है कि शुद्ध और उपयुक्त शब्दप्रयोग-अभियान के लिए विख्यात हस्ताक्षर भाषाविज्ञानी और समीक्षक आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने प्रयागराज-स्थित ‘भरद्वाज मुनि’ मन्दिर मे प्रवेश करने के लिए जो मुख्य प्रवेशद्वार है, उस पर वर्षो़ से अंकित दिख रहे ‘भरद्वाज मुनि’ के अशुद्ध नाम को लेकर अपनी गहन चिन्ता पुन: सार्वजनिक करते हुए बताया है, “मै लगातार इस विषय को सार्वजनिक करता आ रहा हूँ कि मन्दिर के प्रवेशद्वार पर जो नाम अंकित किया गया है, वह अशुद्ध है; वहाँ पर ‘भारद्वाज आश्रम’ अंकित है, जबकि वहाँ ‘भरद्वाज-आश्रम’ उत्कीर्ण होना चाहिए था; लेकिन सम्बन्धित अधिकारी मूक-बधिर-से दिख रहे हैं। हमे नही भूलना चाहिए कि नाम सदैव ‘संज्ञा’ होता है, जबकि ‘भारद्वाज’ विशेषण-शब्द है, जिसका अर्थ ‘भरद्वाज-कुल/गोत्र मे उत्पन्न’, जबकि ‘भरद्वाज’ संज्ञा का शब्द है, जिसका अर्थ ‘एक गोत्र-प्रवर्तक मन्त्रकार ऋषि’ है।”

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने अपनी गम्भीर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा, ” ‘पूरब का ऑक्सफोर्ड’ कहलानेवाले तथाकथित ‘केन्द्रीय विश्वविद्यालय’ के समस्त अध्यापक-अध्यापिकाएँ; आइ० ए० एस०-आइ०, पी०सी०एस० की फैक्टरी कहलानेवाले छात्रावास के मेधावी विद्यार्थी; तरह-तरह के कोचिंग-केन्द्र के जाने-माने कथित ‘सर लोग’; साधु-सन्त-परम्परा के ध्वजवाहक धर्माधीशगण; संस्कृतभाषा- व्याकरण-साहित्यादिक के कर्म और मर्म को बतानेवाले ‘गंगानाथ झा राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्’ के आचार्यवृन्द; सम्बद्ध समस्त संस्कृत-पाठशालाओं के शिक्षक; शिक्षा, साहित्य, व्याकरणादिक क्षेत्रों में प्रशंस्य कर्म करनेवाले प्रतिष्ठित जन; संस्कृत-हिन्दी के शोधच्छात्र तथा प्रयागराज के समस्त शैक्षणिक संस्थानों के संस्कृत और हिन्दी के आचार्य एवं अन्य जन उक्त आश्रम के मुख्य प्रवेशद्वार पर दिख रहे ‘भारद्वाज आश्रम’ शब्दप्रयोग की अशुद्धता को अपने बोधस्तर पर अभी तक क्यों नहीं ला पाये, आश्चर्य का विषय तो है ही, साथ ही सभी की उदासीन मनोवृत्ति का परिचायक भी है!..? ‘नगर निगम’ में तो ‘अँगूठा-टेक’ लोग हैं, अन्यथा ‘भरद्वाज-आश्रम’ को ‘भारद्वाज आश्रम’ अंकित नहीं कराते।”

अपने तर्क की पुष्टि के लिए आचार्य पाण्डेय ने बताया, “गोस्वामी तुलसीदास ने ‘श्री रामचरितमानस’ में लिखा है,
“भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहिं रामपद अति अनुरागा।।”

तुलसी बाबा पुन: कहते हैं,
“भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिवर मनभावन।।”

इतना ही नहीं, तीर्थराज प्रयाग की सत्ता और महत्ता को ‘भरद्वाज मुनि’ के नाम के साथ इस रूप में रेखांकित किया गया है,
“त्रिवेणी माधवं सोमं, भरद्वाजं च वासुकिम्।
वन्दे अक्षयवटं शेषं, प्रयागं तीर्थनायकम्।।”

“इतना सब पढ़ने और घटने के बाद भी यदि प्रयाग का नामकरण करनेवाले प्रयाग के प्रथम वासी, प्रथम कुलाधिपति तथा प्रथम विमानविज्ञानी ‘ऋषि भरद्वाज’ का नाम प्रयागराज में ही अशुद्ध (भारद्वाज) लिखा जाये तो ऐसी स्थिति निस्सन्देह, शोचनीय है।”

उन्होंने सुस्पष्ट शब्दों मे कहा, “हम यहाँ किसी भी राजनेता को दोषी नहीं ठहरायेंगे; क्योंकि उनकी ‘अयोग्यता’ ही ‘उनकी योग्यता’ होती है।” उन्होंने यह भी बताया, भरद्वाज-आश्रम के प्रवेशद्वार पर अंकित ‘मुख्य’ शब्द के आगे (मुख्य-) योजकचिह्न (-) के प्रयोग करने का कोई औचित्य नहीं है। खेद है, जहाँ योजकचिह्न लगना चाहिए वहाँ लगाया ही नहीं गया है। शुद्ध शब्द है, ‘भरद्वाजाश्रम’/ ‘भरद्वाज-आश्रम’। ‘प्रवेश द्वार’ भी अशुद्ध लिखा गया है। ‘प्रवेश द्वार’ में ‘षष्ठी तत्पुरुष’ समास है, जिसका विग्रह है, ‘प्रवेश करने का द्वार’, इसलिए इसे ऐसे लिखा जायेगा– ‘प्रवेशद्वार’/’प्रवेश-द्वार’। इस प्रकार वहाँ शीघ्रातिशीघ्र अंकित कराना होगा– ‘महर्षि भरद्वाज-आश्रम का मुख्य प्रवेशद्वार’।”

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३० जनवरी, २०२२ ईसवी।)