उत्तरप्रदेश के गाँव : कोरोना महामारी की चपेट में क्यों?

★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

उत्तरप्रदेश के मुखिया योगी आदित्यनाथ ने "डंके की चोट पर" ज़िला पंचायत-चुनाव कराये और अनियन्त्रित भीड़ में शामिल सभी को 'कोविड आचार-संहिता' से मुक्त रखा। योगी आदित्यनाथ उत्तरप्रदेश को उसकी दुर्दशा पर छोड़कर 'पोस्टर ब्वॉय' बनकर बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असोम आदिक राज्यों के चुनाव में 'हिन्दुत्व का प्रसाद' बाँटते रहे, जिसका अब परिणाम सामने है :-- उत्तरप्रदेश को बुरी तरह से 'कोविड' ने जकड़ रखा है; राज्य के गाँवों में कोरोना का एकच्छत्र ('एकछत्र' अशुद्ध है।) साम्राज्य स्थापित हो चुका है। कोरोना बड़ी संख्या में ग्रामीण लोग की निर्दयतापूर्वक हत्या करता आ रहा है।

गाँवों में जाने पर ही इस सत्य से सामना होता है कि वहाँ ग्रामीणों के स्वास्थ्य-उपचार के लिए कोई व्यवस्था नहीं है; लोग कराह रहे हैं; मर रहे हैं। ज़िला पंचायत-चुनावों में योगी आदित्यनाथ ने ग्रामीणों का भरपूर इस्तेमाल किया-कराया; और अब, जब गाँवों के लोग अपनी लापरवाही के चलते, कोविड से संक्रमित हो चुके हैं; उनपर 'महामारी का साया' पूरी तरह से पड़ चुका है तब उनके दु:ख-दर्द में शामिल होने के लिए एक भी खद्दरधारी उनके गाँवों में जाता दिख नहीं रहा है। इतना ही नहीं, अधिकतर ग्रामीणों ने कोरोना को गम्भीरता से नहीं लिया था। इससे सुस्पष्ट हो जाता है कि गाँववालों ने "आ बैल! ले मार" को चरितार्थ कर, अपने लिए 'कुभोग-काल' की स्थिति उत्पन्न कर दी है।
 
मैंने गाँवों को समीप से देखा और अनुभव किया। मैंने पाया कि अधिकतर ग्रामीणों ने 'कोविड से उत्पन्न रोग 'कोरोना' को गम्भीरता से बिलकुल नहीं लिया है। कई गाँवों के घर ऐसे हैं, जहाँ परिवार-का-परिवार काल के गाल में समा चुका है।

गाँव के 'सामुदायिक स्वास्थ्य-केन्द्र' संसाधन और सुविधाविहीन हैं। इस ओर न तो शासन जागरूक रहा है और न ही प्रशासन। जानबूझकर ऐसे स्वास्थ्य-केन्द्रों से ग्रामीणों के लिए दी जानेवाली सुविधाएँ या तो बेच दी जाती हैं या फिर ग़ायब कर दी जाती हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि ग्रामीण वहाँ जाये ही नहीं और वहाँ के चिकित्सक, कम्पाउण्डर और अन्य कर्मचारी अय्याशी करते रहें।
 
उत्तरप्रदेश का मुखिया अपनी पीठ ठोंक रहा है और ठोंकवा रहा है, जबकि सत्य यह है कि इस समय राज्य के लगभग सभी चिकित्सालयों में कोरोना से सम्बन्धित उपकरणों और अन्य सुविधाओं का अभाव है। इसे समझने के लिए उन चिकित्सालयों में भरती ('भर्ती' अशुद्ध प्रयोग है।) किये गये रोगियों की दीन-दशा को देखकर और उनके साथ (यहाँ 'उनसे' का प्रयोग अशुद्ध है।) संवाद करने पर एक-एक सच्चाई 'प्याज के छिलके' की तरह से सामने आने लगती है।
इसे न तो दुर्भाग्य की संज्ञा दी जा सकती है और न ही विडम्बना की; यह मात्र 'नितान्त ओछी और गर्हित राजनीति का दुष्परिणाम' है। हमारे राजनेता 'सत्ता' की राजनीति करते हैं, 'राष्ट्रीयता' की कदापि नहीं। उनका वश चले तो 'राष्ट्रधर्म' नीलाम कर दें।

धिक्कार है!

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १२ मई, २०२१ ईसवी।)