स्वाधीनता-संग्राम के बहाने : आओ! याद करें कुछ चेहरे अनजाने

स्वतंत्रता कोई एक शब्द नहीं अपितु एक अप्रतिम विचारधारा है। स्वाधीनता वह है जैसे प्रकृति हर हाल मे प्राप्त करना चाहती है और सभी को स्वतंत्रता देना भी चाहती है। स्वाधीनता पर अनेक ग्रंथ रचे जा सकते हैं। स्वतंत्रता को पाने के लिए भारत ने 200 साल तक अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी। भारत की स्वतंत्रता की यात्रा अपार बलिदान, साहस और एकता से भरी हुई है। 1857 के विद्रोह से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक, हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने हमारी स्वतंत्रता के लिए कई चुनौतियों का सामना किया। भारत की आजादी के लिए सक्रिय स्वाधीनता-संग्राम एक सदी से भी अधिक चला। संघर्ष तो दो सौ साल से भी ज्यादा का रहा। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी पहली बार 17वीं सदी की शुरुआत में भारत में सिर्फ व्यापारी करने आई थी, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने भारत के संसाधनों पर कर लिया और देश को उपनिवेश बना लिया।

19वीं सदी तक ब्रिटिश ने भारत पर कब्जा कर लिया और इसे एक सीधा उपनिवेश बना दिया। कई सालों के उत्पीड़न और गुलामी के बाद कुछ लोग ब्रिटिशों द्वारा किए गए अन्याय के खिलाफ लड़ने को तैयार हुए। देश की आजादी के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने एक संगठन बनाया। कॉंग्रेस पहले राजनीतिक संवाद के लिए एक मंच बन गया। लेकिन आंदोलन को असली गति तब मिली जब महात्मा गांधी भारत आए। लेकिन यह भी सत्य है कि बलिदानियों के बलिदान के बिना आजादी दिवास्वप्न के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

कुछ लोग त्याग, बलिदान और आजादी के लिए किए गए लंबे संघर्षों के बाद स्वतंत्र भारत में भी वह सम्मान और पहचान न पा सके जिसके वे हकदार थे। इन वीर सेनानियों में अनेक महिलाएं भी थीं जिन्होंने न केवल क्रांतिकारियों की तरह तरह से सहायता की बल्कि संगठनों व सभाओं का नेतृत्व भी किया। आइए जानें कुछ ऐसी ही वीरांगनाओं के बारे में जो इतिहास के पन्नों में कहीं खो गईं। 

ऐसी ही एक मशाल कनकलता बरुआ है। इनका जन्म 22 दिसंबर 1924 को असम के सोनीपुर जिले के गोहपुर गांव में हुआ था। अल्पायु में ही माता-पिता की मृत्यु के बाद उनकी नानी ने उन्हें पाला-पोसा। 1931 में गमेरी गांव में रैयत अधिवेशन हुआ जिसमें तमाम क्रांतिकारियों ने भाग लिया। सात साल की कनकलता भी अपने मामा के साथ अधिवेशन में गईं। इस अधिवेशन में भाग लेने वाले सभी क्रांतिकारियों पर राष्ट्रदोह का मुकदमा चला तो पूरे असम में क्रांति की आग फैल गई। कनकलता क्रांतिकारियों के बीच धीर-धीरे बड़ी होने लगीं। एक गुप्त सभा में 20 सितम्बर 1942 को तेजपुर कचहरी पर तिरंगा फहराने का निर्णय हुआ। उस दिन बाइस साल की कनकलता तिरंगा हाथ में थामे जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं। अंग्रेजी सेना की चेतावनी के बाद भी वे रुकी नहीं और छाती पर गोली खाकर शहीद हो गईं। अपनी वीरता व निडरता के कारण वे वीरबाला के नाम से जानी गईं। आज सबसे कम उम्र की बलिदानी कनकलता का नाम भी इतिहास के पन्नों से गायब है। 

झलकारी बाई की जय के बिना लक्ष्मी बाई के प्रति हमारी श्रद्धांजलि दिखावा है। झलकारी बाई का जन्म 22 नंवबर 1830 को झांसी के भोजला गांव में हुआ था। बचपन में ही उनकी मां की मृत्यु हो गई। पिता ने मां और पिता दोनों की भूमिका निभाते हुए उन्हें बड़े प्यार से पाला और घुड़सवारी व तीरंदाजी की शिक्षा दी। उनका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक के साथ हुआ। यहां वे रानी के संपर्क में आईं। रानी ने उनकी क्षमताओं से प्रभावित होकर उन्हें अपने महिला सैनिकों की शाखा दुर्गा दल में शामिल कर लिया। यहां उन्होंने तोप व बंदूक चलाना सीखा और दुर्गा दल की सेनापति बनीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं। शत्रु को धोखा देने के लिए कई बार वे रानी के वेश में भी युद्धाभ्यास करती थीं। अपने अंतिम समय में वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए अंग्रेजों के हाथों पकड़ी गईं और रानी को किले से भागने का अवसर मिल गया। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोककथाओं में अमर है। 

रानी चेनम्मा एक ऐसी चेतना है जिससे स्वाधीनता संग्राम की आरती दक्षिण मे प्रज्वलित होती रही। चेनम्मा कर्नाटक के कित्तूर राज्य की रानी थीं। उनका जन्म 1778 में बेलगाम जिले के ककती गांव में हुआ था। पहले पति फिर पुत्र की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने अपनी ‘राज्य हड़प नीति’ के तहत कित्तूर राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। रानी को यह मंजूर नहीं था, उन्होंने अंग्रेजी सेना से जमकर लोहा लिया। अपूर्व शौर्य प्रदर्शन के बाद भी वे अंग्रेजी सेना का मुकाबला न कर सकीं। उन्हें कैद कर लिया गया। 21 फरवरी 1829 को कैद में ही उनकी मृत्यु हो गई। उनके इस बलिदान ने तमाम रजवाड़ों को संगठित होने के लिए प्रेरित किया। 

स्वाधीनता संग्राम की बलिवेदी पर एक और देवी मातंगिनी हजारा का बलिदान आज भी रोमांच से भर देता है। मातंगिनी हजारा का जन्म 19 अक्टूबर 1870 को तत्कालीन पूर्वी बंगाल के मिदनापुर जिले के होगला गांवमें हुआ था। गरीबी के कारण बारह वर्ष की उम्र में उनका विवाह 62 वर्षीय विधुर के साथ कर दिया गया। छ: वर्ष के बाद वे नि:संतान विधवा हो गईं। जैसे-तैसे गरीबी में दिन गुजार रही थीं। 1932 में देशभर में स्वाधीनता आंदोलन चला और जुलूस उनके घर के सामने से गुजरा तो वे भी जुलूस के साथ चल पड़ीं। इसके बाद वे तन-मन-धन से देश के लिए समर्पित हो गईं। 17 जनवरी 1933 को कर बंदी आंदोलन का नेतृत्व किया, गवर्नर एंडरसन को काले झंडे दिखाए तो गिरफ्तार कर ली गईं। छ: मास का सश्रम कारावास हुआ। भारत छोड़ो आंदोलन की रैली के लिए घर-घर जाकर 5000 लोगों को तैयार किया। तिरंगा हाथ में लिए रैली का नेतृत्व करते हुए मातंगिनी जुलूस के साथ जब सरकारी डाक बंगले पर पहुंचीं तो पुलिस ने वापस जाने को कहा। मातंगिनी टस से मस न हुईं। अंग्रेजी सिपाहियों ने गोली चला दी। गोली मातंगिनी के बाएं हाथ में लगी। तिरंगे को गिरने से पहले ही दूसरे हाथ में ले लिया। दूसरी गोली दाएं हाथ में और तीसरी माथे पर लगी। मातंगिनी वहीं शहीद हो गईं। इस बलिदान ने क्षेत्र के लोगों में जोश भर दिया परिणामस्वरूप लोगों ने दस दिनों के अंदर ही अंग्रेजों को वहां से खदेड़ दिया और स्वाधीन सरकार स्थापित की, जिसने 21 माह काम किया। आज हममें से कितने लोग हैं जो मातंगिनी हजारा जैसी कोई वीरांगना हुई थी यह जानते हैं? 

भारत की स्वाधीनता हेतु असंख्य बलिदानो और प्रयासों के बीच गुमनामी के गर्त मे धूलधूसरित इतिहास के पन्नों को विस्मृत करना हमारी कृतघ्नता होगी।दुद्धा भील से लेकर बाजी राउत तक अनेक बाल वीरों ने अपने रक्त से भारत माता का तिलक किया है। ऊदा देवी, जिन्दा जलायी गयी मैना देवी से प्रीतिलता वादेदार तक भारत भूमि ऐसे बलिदानों और बलिदानियों से भरी पड़ी है। हमें बेशक स्वतंत्रता संग्राम में प्राणों की आहुति देने का सौभाग्य नहीं मिला परंतु हम इन अमर बलिदानियों को याद तो रख ही सकते हैं। आइए कुछ क्रान्तिशिखाओं के विषय मे आपको बताते हैं।

आजादी केवल अंग्रेजों की जी हुजूरी से नहीं मिली। यह आजादी अगणित ज़िन्दगियाँ निगल गयी है। 1857 की क्रांति का नेतृत्व कानपुर में नाना साहब कर रहे थे। उनकी दत्तक पुत्री कुमारी मैना थीं। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बिठूर में लगभग 1844 में हुआ। 1857 के स्वतंत्रता संघर्ष में नाना साहब भूमिगत थे। ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ्तारी और सूचना पर एक लाख तक का इनाम घोषित कर रखा था। अंग्रेज नाना साहब की पुत्री कुमारी मैना को बिठूर से गिरफ्तार करके कानपुर ले आए। वे मैना से नाना साहब और अन्य क्रांतिकारियों का पता पूछते रहे। 13 साल की इस बच्ची को अंग्रेजों ने पेड़ से बांध दिया। यातनाएं दीं, पर उन्होंने मुंह नहीं खोला। आखिरकार अंग्रेजों ने उन्हें जलती चिता में झोंक दिया।

वीर नारी दुर्गावती बोहरा उर्फ दुर्गा भाभी के बिना आजादी का चैप्टर अधूरा है। दुर्गावती का जन्म 7 अक्टूबर 1902 को कौशाम्बी जिले के शहजादपुर गांव में हुआ था। दस वर्ष की अल्पायु में ही इनका विवाह लाहौर के भगवती चरण बोहरा के साथ हुआ। भगवती चरण के पिता शिवचरण रेलवे में उच्च पद पर आसीन थे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें राय साहब की पदवी दी थी। पिता के प्रभाव से दूर भगवती चरण का क्रांतिकारियों से मिलना-जुलना था। उनका संकल्प देश को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराना था। 1920 में पिता की मृत्यु के बाद पति-पत्नी दोनों खुलकर क्रांतिकारियों का साथ देने लगे। 28 मई 1930 को रावी नदी के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय बोहरा शहीद हो गए। अब दुर्गावती जो साथियों में दुर्गा भाभी के नाम से जानी जाती थीं और अधिक सक्रिय हो गईं। 9 अक्टूबर 1930 को दुर्गा भाभी ने गवर्नर हैली पर गोली चलाई परंतु वह बच गया। मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी दुर्गा भाभी ने ही गोली मारी थी, जिससे पुलिस उनके पीछे पड़ गई और गिरफ्तार कर लिया। दुर्गा भाभी का काम क्रांतिकारियों को हथियार पहुंचाना था। वे भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त आदि के साथ काम करती थीं। उनकी शहादत के बाद वे अकेली पड़ गईं और अपने पांच साल के बेटे शचींद्र को शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से दिल्ली और फिर लाहौर चली गईं। जहां पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और तीन वर्षों तक नजरबंद रखा। 1935 में वे गाजियाबाद आ गईं और एक विद्यालय में पढ़ाने लगीं। इसके बाद अन्य कई स्कूलों में भी उन्होंने अध्यापन किया और 14 अक्टूबर 1999 को इस दुनिया से विदा हो गईं।

स्वतंत्रता की बुलंद इमारत लाखों शवों की नीवँ पर बनी है। केवल ये कह देना कि आजादी असहयोग और लाठि की मार खाकर मिली है, क्रांतिकारियोंका अपमान है। अहिंसावादियों के योगदान को भी कम करके नहीं देखा जाना चाहिए। शांतिपूर्ण विरोध की अवधारणा के माध्यम से महात्मा गांधी ने भारत को असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन दिया। गांधीजी के इन आंदोलनों में लोग बड़े पैमाने पर शामिल होने लगे। इसी दौरान द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। ब्रिटिश नियंत्रण कमजोर होने के कारण, स्वतंत्रता की मांग तेज हो गई। विभिन्न स्वतंत्रता सेनानियों के प्रयासों के कारण अंततः अंग्रेजों को हार माननी पड़ी। काफी लंबे संघर्ष के बाद भारत को अंग्रेजों से आजादी मिली। 15 अगस्त 1947 को भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया गया। भारत की आजादी के लिए मंगल पांडे, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और शहीद भगत सिंह समेत लाखों स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राणों की आहुति दी। स्वतंत्रता हम भारतीयों की अमूल्य निधि है। इसे प्राप्त करने मे दिये गये बलिदान को विस्मृत करना क्रान्ति की मशाल बुझाने जैसा होगा।