‘मनुष्यता’ से बढ़कर कोई धर्म नहीँ

आज भारत मे जिस तरह से धर्म का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, उससे यही प्रतीत होता है, मानो धर्म-जैसा घृणित और अश्लील शब्द कोई हो ही न। इसका मुख्य कारण यह है कि समाज मे धर्म को इतना सस्ता और बाज़ारू बना दिया गया है कि उसके प्रति भारतीय समाज मे वितृष्णा उत्पन्न हो चुकी है। क्या समुदायोँ का कर्मकाण्ड धर्म है? किसी अन्य समुदाय की आस्था पर प्रहार कर विजयश्री का आयोजन करना धर्म है? क्या आराधना-पूजन-अर्चना ही धर्म है? क्या घृणित और पाशविक राजनीतिज्ञोँ की चाल और ढाल धर्म है? क्या देश के जनसामान्य की भावना-संवेदना के साथ विश्वासघात कर अपना हेतु सिद्ध करना धर्म है? इन विन्दुओँ पर अब गम्भीरतापूर्वक विचार करना समय की पुकार है, अन्यथा भारतराष्ट्र पतन के एक ऐसे गह्वर मे समाता चला आयेगा, जहाँ उसका अस्तित्व ही सदा-सदा के लिए मिट जायेगा। हमे अपने वास्तविक धर्म ‘मनुष्यता’ की रक्षा करना सर्वोपरि प्राथमिकता समझनी होगी। इसी मनुष्यता के मूल मे जड़-चेतन की संवेदना अभिव्यक्त होती रहती है।

स्वर्ग यहीँ है और नरक भी यहीँ। कर्म के सम्मुख किसी ‘भौतिक धर्म’ का कहीँ कोई अस्तित्व नहीँ। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ की यही निष्पत्ति है। जो भी इस विचार से असहमत हो, उसके सम्मुख दो प्रश्न हैँ :– (१) कुछ मनुष्य, पशु, पक्षी तथा जन्तु टेढ़े-मेढ़े, विकलांग तथा अद्भुत रूप मे क्योँ पैदा होते हैँ? (२) वे इस मृत्युलोक मे ही ‘दु:ख और सुख’ के भागी क्योँ बनते हैँ? मत भूलिए, यहीँ कर्म है और फल भी; क्योँकि दोनो एक-दूसरे के पूरक हैँ। हमारे देश मे मनुष्यता का पतन अति शीघ्रता मे हो रहा है। यही कारण है कि मनुष्य विवेकस्तर पर क्षीण होता जा रहा है। हमारे मूल आत्मिक धर्म ‘मनुष्यता’ को नष्ट करने के लिए मुट्ठीभर आसुरी शक्ति लगी हुई हैँ, जो भौतिक धर्म के नाम पर एक समुदाय-विशेष को दिग्भ्रमित करती आ रही है; क्योँकि क्षुद्र स्वार्थसागर मे आकण्ठ डूबी हुई नकारात्मक शक्ति शान्त सरोवर मे लगातार ढेला फेँकती आ रही है।

गीता, क़ुर्आन, हदीस, बाइबिल तथा गुरु ग्रन्थ साहेब भी मनुष्यता के पोषक हैँ। भूखे को भरपेट भोजन दे दो; प्यासे को जीभर जल पिला दो; वस्त्रहीन को वस्त्र ओढ़ा दो तथा अभाव मे ‘भाव’ का दर्शन करा दो, यही सच्ची मनुष्यता है और सनातन धर्म भी। ‘हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी इत्यादिक विचार/ मतमात्र हैँ। अपनी पृथक् प्रकार की पहचान बनाने के लिए मनुष्य-निर्मित कथित धर्मो (‘धर्मों’ ने अशुद्ध है।) ने एक प्रकार का उपक्रम किया है, जो अब मनुष्यता के लिए घातक सिद्ध होने लगे हैँ। धर्म वह है, जिसे स्थावर-जंगम ने धारण किये हुए हैँ :– दया, करुणा, सहिष्णुता, क्षमाशीलता, परोपकार, उदारता, वीरता-धीरता-गम्भीरता, दानशीलता इत्यादिक। वस्तुत: यही सनातन धर्म हैँ।

जब नारद ने विष्णु से उनके वास-स्थान को जानना चाहा था तब उन्होँने कहा था, “नाहं वसामि वैकुण्ठे, योगिनां हृदये न च। मद्भक्ता यत्र गायन्ति, तिष्ठामि तत्र नारद।” न मै वैकुण्ठ मे रहता हूँ; न योगियोँ के हृदय मे रहता हूँ। मेरे भक्त मेरा जहाँ कहीँ भी स्मरण करते हैँ/ मुझे भजते हैँ, नारद! मै वहीँ प्रकट हो जाता हूँ।

उसी समय से नारद जिधर भी निकल पड़ते थे, “नारायण-नारायण” का गायन आरम्भ कर देते थे।
फिर कैसा मन्दिर?

जितने भी समुदायोँ के उपासनास्थल हैँ, वहाँ कितने प्रकार के कुकर्म, दुष्कर्म, कदाचार तथा अन्य प्रकार के अपराध किये जाते रहे हैँ, वे किसी से छिपे नहीँ हैँ। कहीँ पण्डा, कहीँ मुल्ला, कहीँ पादरी, कहीँ ग्रन्थी, कहीँ जैनी, कहीँ बौधी तो कोई और समय-समय पर अपने कलुषित और कुत्सित चरित्र के लिए जाने-पहचाने जाते रहे हैँ, फिर भी लोग उन अधम और लम्पट धर्माधिकारियोँ के चरण पखारते आ रहे हैँ। कई अपने कुकर्मो का दण्ड कारागार मे भोग रहे हैँ। जनसामान्य की वैसी भक्ति अपने माता-पिता के प्रति रहती तो उससे बड़ा न तो कोई मन्दिर होता; मस्जिद होती; गिरजाघर होता; गुरुद्वारा होता और न ही किसी प्रकार का कोई अन्य उपासनास्थल।

रामाश्रयी शाखा के प्रवर्तक गोस्वामी तुलसीदास ने भारतीय समाज-द्वारा सर्वाधिक पढ़े जानेवाले ग्रन्थ ‘श्री रामचरितमानस’ (यहाँ ‘रामचरितमानस’ अनुपयुक्त शब्द है।) मे एक स्थान पर लिखा है, ”कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करहि, सो तस फल चाखा।।” (यह जगत् कर्म-प्रधान है। जो जैसा कर्म करेगा, उसे वैसा ही फल प्राप्त होगा।)

यदि किसी मत-सम्प्रदाय के ग्रन्थ मे कहीँ पर भी ‘हिंसा’, ‘भेद-भाव’, ‘घृणा’ इत्यादिक कुकृत्य करने के लिए उकसाया जाता हो तो उसे जलाकर राख कर देना चाहिए; क्योँकि ‘मनुष्यता’ से बढ़कर कोई ‘धर्म’ नहीँ।

आज समाज मे ‘धर्म’ के नाम पर जितने भी प्रकार के पाखण्ड-पोषण किये जा रहे हैँ, उनके स्थान पर केवल ‘मानवता’ को प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है, अन्यथा ‘मानव-अस्तित्व’ संकट मे पड़ जायेगा।

मोहम्मद साहिब ने कहा था :–
सारे कर्मो का आधार नीयत (इरादा) है। ग़लत इरादे से किये गये अच्छे कर्म का भी फल अल्लाह नहीँ देता।
और अन्त मे, मोहम्मद साहिब के इस उत्तम कथन से विचार-प्रवाह का समापन करना युक्ति-युक्त होगा :–
जाहिल के सामने ‘अक़्ल’ की बात मत करो; पहले वह बहस करेगा और अपनी हार देखकर ‘दुश्मन’ बन जायेगा।

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