
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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एक–
तीर्थराजप्रयाग मे, जनमानस बेहाल।
भीड़ हाँफती हर तरफ़, बजता शासन-गाल।।
दो–
तीर्थराजप्रयाग मे, शासन खेले खेल।
महाकुम्भ के नाम पर, निकल रहा जन-तेल।।
तीन–
‘पर’ चिड़िया न मार सके, मुखिया का उद्घोष।
भगदड़ मे जन मर रहे, साहिब सब बेहोश।।
चार–
सच पर पर्दा डालकर, शासन देखो मौन!
जीवित कैसे मृत बने, उत्तर देगा कौन?
पाँच–
सौ करोड़ के लोग का, जमकर हुआ प्रचार।
दृश्य भयावह देखकर, क्योँ शासन लाचार?
छ: –
रुग्ण प्रशासन दिख रहा, यात्री सब बेहाल।
हैरत भी लाचार है, देख बदलती चाल।।
सात –
साहिब सब सुविधा लिये, जनता ख़ाली हाथ।
जनगण थककर चूर है, कोई संग न साथ।।
आठ–
वाहन दिखते ख़ास हैँ, ख़ास दिखे हैँ लोग।
कैसा धर्म-जुनून है, छाया कैसा रोग!
नौ–
महाकुम्भ के नाम पर, शतरंजी है चाल।
क़ीमत मानव कुछ नहीँ, खीँच रहा है काल।।
दस–
साँप सूँघता दिख रहा, कोई नहीँ जवाब।
खोटा सिक्का चल गया, पूरा होता ख़्वाब।।
ग्यारह–
हा धिक्-हा धिक् कर रहा, जन-जन का हर अंग।
पापी दिखते मौन हैँ, गिरगिट-जैसे रंग।।
बारह–
देह बिछड़ती जा रही, मोह हो गया सूर।
कुचल देह को देह थी, जीवन होता दूर।।
तेरह–
माँ-छाती से शिशु लगा, जीवन होता मौन।
शिशु जीवन भी छोड़ता, बोध करेगा कौन?
चौदह–
राह अकेली थी वहाँ, उन्मादी थी भीड़।
देख-रेख सब पंगु थी, उजड़ गये सब नीड़।।
पन्द्रह–
ख़ुशी-ख़ुशी सब साथ थे, विपदा का था खेल।
साँस मरण की ओर थी, सब थे सबको ठेल।।
सोलह–
कुचल रहे जीवित सभी, दिखता कहीँ न ठौर।
भूखे-प्यासे थे सभी, बने मौत के कौर।।
सत्रह –
तड़पा था भाई यहाँ, बहन तड़पती और।
पत्नी मरती देखती, पति पर करती ग़ौर।।
अट्ठारह–
कुचल रहे सब लोग थे, निर्मम गंगा-देश।
देह लोथड़े बन गये, ज़ख़्मी था परिवेश।
उन्नीस–
कोई पकड़े बाँह था, कोई पकड़े केश।
जो भी जीवन शेष था, बनता रहा अशेष।।
बीस–
जीवन-मोह समीप था, मृत्यु निकट हर हाल।
भगदड़ मे रौँदे गये, क्रूर दिखा था काल।।
इक्कीस–
एक बूँद की प्यास ले, छोड़ गये सब साथ।
होठ चिपकते रह गये, बँधे-खुले थे हाथ।।
बाईस–
आशा सूखी रह गयी, संगम-तट भी दूर।
मृत्यु बिछौना बन गयी, छिने आँख के नूर।।
तेईस–
दृश्य भयावह रूप था, काँप रही थी देह।
मन मे उत्सुकता बसी, कैसे लौटेँ गेह।।
चौबीस–
जूते-चप्पल वस्त्र सब, कहेँ कहानी एक।
लाश बिछी थी हर जगह, रह-रह मरेँ अनेक।।
पच्चीस–
क्रूर प्रशासनराज है, सच से करता दूर।
लाश दिखी कोई नहीँ, लगते मानो सूर।।
छब्बीस–
बिलख रही बेटी यहाँ, नहीँ पिता का मोल।
बहना सिसकी भर रही, भइया चुप क्योँ, बोल?
सत्ताईस–
पत्नी है बेसुध पड़ी, छोड़ गये पति राह।
माता गिर-गिर जा रही, शाप दे रही आह।।
अट्ठाईस–
छिपा लिया है सत्य को, कैसा निर्मम रूप।
शव पल मे ग़ाइब हुए, मौन बना है भूप।।
उनतीस–
धूप-छाँव के खेल मे, जीत गया है पाप।
पीड़ा, क्रन्दन कसक अब, उगल रहे हैँ शाप।।
तीस–
रेँगे कानो जूँ नहीँ, हा धिक्-हा व्यापार।
शोकलहर हर सू दिखे, जीवन बनता भार।।
इकतीस–
कितना निर्मम दृश्य है, धर्म खो रहा मर्म।
हिन्दू ही तो मृत रहे, आयी तनिक न शर्म।।
बत्तीस–
मर-मर जन हैँ जी रहे, याद बिछोही आँख।
बेटी क़ैदी-सी दिखे, कतर दिये हैँ पाँख।।
तैँतीस–
सिसकी देखो मौन है, टूट रही है देह।
निर्मम दिशि है दिख रही, निर्मोही है नेह।।
चौँतीस–
मीठा-मीठा खा गये, कड़ुवा थूक हज़ार।
दुरवस्था है चीख़ती, फूल बन गये ख़ार।।
पैँतीस–
सच देखे, माने नहीँ, अहंकार मे चूर।
अन्ध मीडिया हर जगह, छद्म दिखे भरपूर।।
छत्तीस–
माँ गंगा भी सन्न हैँ, यमुना हतप्रभ मौन।
संगमतट है पूछता, शव को निगला कौन?
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