● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
देश के जाने-माने सरकारी संस्थान ‘केंद्रीय हिंदी निदेशालय’, दिल्ली की ओर से हाल ही मे एक लघु पुस्तक जारी की गयी है, जिसमे किस शब्द, वर्तनी, विरामादिक चिह्नो को मानक माना जाये वा न माना जाये, इसका उल्लेख है, जिसे लेकर देश मे एक बहस छिड़ गयी है– किसे मानक माना जाये वा न माना जाये; उसके मानकीकरण का आधार क्या है? आख़िर इसे निर्धारित करने का एकाधिकार केन्द्रीय हिंदी निदेशालय को ही क्योँ सौँपा गया है?
ये सारे प्रश्न तब उभरे हैँ जब उक्त निदेशालय की ओर से जारी की गयी लघु पुस्तक मे निर्धारित मानकीकरण पर देश के प्रख्यात भाषाविज्ञानी और शुद्ध हिन्दीभाषा-व्यवहार के प्रति आग्रहशील ‘आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय’ ने अपनी खुली प्रतिक्रिया व्यक्त की है और अपनी भाषिक चुनौती प्रस्तुत की है।
यहाँ प्रस्तुत है, तीन भागोँ मे समाप्य समीक्षात्मक लेख का प्रथम भाग–
–सम्पादक
केन्द्र-सरकार ने 'केंद्रीय हिंदी निदेशालय', दिल्ली को यह दायित्व सौँपा है– आप जो भी शब्द, वर्तनी, चिह्नादिक निर्धारित कर देँगे, वही देश मे मान्य हो जायेगा। अफ़्सोस! उक्त निदेशालय के चरित्र और कार्यप्रणाली पर अब पूरी तरह से प्रश्नचिह्न लग चुका है। दु:ख इस बात का है कि उस निदेशालय से जाने देश के कितने कुलपति, व्याकरणाचार्य, भाषाविद्, भाषाविज्ञानी, विश्वविद्यालय के वर्तमान, भूत और अभूतपूर्व 'प्रोफ़ेसर' जुड़े रहे हैँ; परन्तु सभी की भूमिका संदिग्ध दिख रही है। यदि ऐसा नहीँ रहता तो निदेशालय की ओर से 'पुस्तिका' के नाम पर जो 'देवनागरी लिपि एवं हिंदी वर्तनी का मानकीकरण' नामक 'विवरणिका' अभी हाल ही मे सार्वजनिक की गयी है, उसके नाम मे 'योजकचिह्न'/योजक-चिह्न' (-) की उपेक्षा नहीँ की गयी रहती, जबकि इसी विवरणिका मे पृष्ठ-संख्या १६ पर 'योजक चिह्न' के अन्तर्गत यह नियम मुद्रित है, ''योजक चिह् न (हाइफन) का विधान स्पष्टता के लिए किया जाता है।"
उक्त विवरणिका के नाम मे ‘हिंदी वर्तनी की जगह ‘हिंदी-वर्तनी’ होगा। जहाँ पृष्ठ-संख्या ३ पर ‘विशेषज्ञ समिति’ है वहाँ ‘विशेषज्ञ-समिति’ होगा। पृष्ठ-संख्या ४ पर ‘पैराग्राफ विभाजन’ के स्थान पर ‘पैराग्राफ-विभाजन’ होगा। पृष्ठ-संख्या ३ पर जहाँ सबसे ऊपर ‘वर्ष २०२४ संस्करण के लिए ‘विशेषज्ञ समिति’ का शीर्षक दिया गया है, उसमे भाषाक्षेत्र के २१ प्रतिष्ठित लोग हैँ; परन्तु उनमे से ऐसा कोई नहीँ है, जो ‘पैराग्राफ’ की हिन्दी-अर्थ का बोध कराये। ‘पैराग्राफ़’ की हिन्दी ‘अनुच्छेद’ है। इसप्रकार ‘पैराग्राफ विभाजन’ के स्थान पर ‘अनुच्छेद-विभाजन’ होगा।
निदेशालय के निदेशक प्रो. सुनील बाबुराव कुलकर्णी ‘देशगव्हाणकर’ पृष्ठ-संख्या ५ पर अपनी ‘प्रस्तावना’ के अन्तर्गत योजक-चिह्न का प्रयोग करना भूल गये-से लगते हैँ। उदाहरण के लिए– मानव सभ्यता, संगीत कला, हिंदी वर्णमाला, मंत्रालय द्वारा, स्वन परिवर्तन, हिंन्दी शब्द, शिक्षा मंत्रालय, अंग्रेजी शब्द इत्यादिक बड़ी संख्या मे शब्द-प्रयोग हैँ, जिनमें योजक-चिह्न दिख ही नहीँ रहे हैँ। इन सबमे योजक-चिह्न का प्रयोग होगा; नहीँ प्रयोग करना था तो उक्त निदेशालय के मानकीकरण के अनुसार, दोनो शब्दोँ को मिलाकर लिखा जाता। इसी प्रस्तावना मे अल्प विरामचिह्न की पूरी तरह से अवहेलना की गयी है और जहाँ अल्प विरामचिह्न नहीँ प्रयुक्त होँगे वहाँ किये गये हैँ। प्रस्तावना मे सबसे नीचे दिख रहे वाक्य ‘शुभमस्तु’ के आगे अल्प विरामचिह्न लगाया गया है, जोकि अशुद्ध है; क्योँकि ‘शुभमस्तु’ का अर्थ ‘कल्याण हो!’ है, जोकि कामनासूचक वाक्य है, इसलिए उसके अन्त मे इच्छासूचक-चिह्न (!) का प्रयोग होगा। ‘कथित ‘पुस्तिका’ के नाम पर छलावा करते हुए, इसमे योजक-चिह्न की भरपूर उपेक्षा की गयी है। उदाहरण के लिए– भाषा विशेषज्ञ, लेखन प्रणाली, हिंदी वर्णमाला, हिंदी भाषा, विकास यात्रा, हिन्दी अंक, लिपि चिह्न इत्यादिक बड़ी संख्या मे अशुद्धि दिख रही है।
मानकता को प्रमाणित करने के उद्देश्य से उक्त प्रकाशित विवरणिका मे मानक शब्दोँ, वर्तनी, विरामचिह्नादिक मे भिन्नता और पार्थक्य को देखते हुए, यह समझ मे नहीँ आता कि हम किसे अल्प विरामचिह्न (,); किसे अर्द्ध विरामचिह्न (;), किसे उपविरामचिह्न (:), किसे योजकचिह्न (-), किसे निर्देशकचिह्न (–), किसे विवरणचिह्न (:–) तथा किसे लाघवसूचकचिह्न/संक्षेपसूचक-चिह्न (०) कहेँ। इस विवरणिका के प्रत्येक पृष्ठ पर इनकी उपेक्षा जानबूझकर की गयी है, अन्यथा इनका उपयुक्त प्रयोग दिखता। मानकता का बोध करानेवाली इस घोषित लघु पुस्तक मे भाषा और व्याकरण के जितने प्रकाण्ड पण्डित-पण्डिता तथा निदेशालय के निदेशक हैँ, शैक्षिक योग्यतानुसार उन सबके नाम के पूर्व मे ‘प्रो.’ और ‘डॉ.’ अंकित है, जबकि हिन्दी-विरामचिह्नो के अन्तर्गत (.) यह चिह्न है ही नहीँ; यह तो अँगरेज़ी ‘पंक्चुएशन’ का ‘फुल स्टॉप-चिह्न’ है; हिन्दी मे लाघवसूचकचिह्न (०) यह है। देश के प्रत्येक विश्वविद्यालय का कुलपति तथा प्राध्यापक लिखता है– वि.वि., जोकि अशुद्ध है; लिखना चाहिए– वि० वि०। इस प्रकार ‘प्रो०’ और ‘डॉ०’ लिखना चाहिए, अन्यथा सारी शिक्षा-दीक्षा और पदस्थापना व्यर्थ है। इस विवरणिका मे ‘क्र.सं.’ को ‘क्र० सं०’ लिखा जायेगा। निदेशालय को इसमे सुधार कर लेना चाहिए। जब हमारी हिन्दी समृद्ध है तब अँगरेज़ी के झूठन बटोरने का औचित्य क्या है?
हम अब इस पुस्तिका मे इस चिह्न (:) पर विचार करेँगे। विशेषज्ञ-समिति के सदस्या-सदस्य ने (:) इस चिह्न के साथ क्रूर उपहास किया है। यही कारण है कि इस चिह्न का कहीँ विसर्ग, कहीँ निर्देशकचिह्न तो कहीँ विवरणचिह्न के रूप मे मनमाना प्रयोग किया गया है। पृष्ठ-संख्या ३, ४ और ६, ११, १२,१५, १८ के क्रमश: ‘विभागीय संकाय:’ ‘अनुक्रमणिका’ तथा ‘अध्ययन-सामग्री’ के शीर्षक-उपशीर्षक के अन्तर्गत ‘देवनागरी:’ का तीन बार और ‘लिपि:’, ‘लिपि चिह् न:’, ‘विसर्ग:’, ‘हल् चिह् न:’, ‘मैथिली:’, ‘मणिपुरी:’, ‘पंजाबी:’ ‘देंखे:’, ‘जैसे:’ का अशुद्ध और आपत्तिजनक प्रयोग किये गये हैँ। इन सारे शब्दोँ के अन्त मे दो ऊपर-नीचे बिन्दी दिख रही है, वह ‘विसर्ग’ का चिह्न है, जिनका यहाँ शीर्षक-उपशीर्षक के आगे लगाये जानेवाले चिह्न के रूप मे व्यवहार किया गया है, जोकि ‘केंद्रीय हिंदी निदेशालय’, भारत-सरकार की ओर से मानकीकरण के नाम पर किया गया शोचनीय कृत्य है। अब यहाँ उक्त विशेषज्ञोँ से मेरा खुला प्रश्न है :– यदि आपसब ‘लिपि:’, ‘जैसे:’, ‘देखेँ:’ ‘चिह् न:’ इत्यादिक मे लगाये गये (:) इस चिह्न को सही मानते हैँ तो ‘अत:’, ‘हत:’, ‘स्वत:’, ‘अध:’, ‘मन:’, ‘परित:’ इत्यादिक मे प्रयुक्त (:) उसी चिह्न-प्रयोग के अन्तर को किस आधार पर तर्क और तथ्यसंगत सिद्ध करेँगे?
निदेशालय की विशेषज्ञसमिति को नहीँ मालूम तो जान लेँ। हिन्दी-विरामचिह्न के अन्तर्गत (:) इस चिह्न को ‘उप-विरामचिह्न’ कहते हैँ। उदाहरण के लिए– कामायनी : एक अनुशीलन, महाराणा प्रताप : भारत के स्वाभिमानी पुरुष, भाषा-साहित्य : एक परिशीलन इत्यादिक। यहाँ हमने आरम्भिक शब्द/शब्दोँ के आगे एक अन्तराल देकर (:) इस चिह्न का प्रयोग किया है, न कि विसर्ग का रूप देकर, बिलकुल पास लाते हुए।
हम अब, (–) उक्त निदेशालय के विशेषज्ञोँ ने (–) इस एक चिह्न का मानकीकरण कितने रूपोँ मे किये हैँ, इसे समझेँगे। भारत-सरकार की इस कथित मानक पुस्तिका मे निर्देशकचिह्न (–) के जितने प्रकार दिखाये गये हैँ, उनसे सुस्पष्ट हो चुका है कि वा तो विशेषज्ञसमिति के सदस्यासदस्य भ्रमित हैँ वा फिर शिक्षा-साहित्य-जगत् को भ्रमित कर रहे हैँ। यही कारण है कि इस विवरणिका मे निर्देशकचिह्न के नाम पर (:), (-), (:-), (:–), (: –) , ( -), (–) आदिक चिह्न लगाये गये हैँ। पृष्ठसंख्या ७, ८, १७, १८, १९ पर क्रमश: सातवीँ पंक्ति मे ‘देखें:’, बीसवीँ पंक्ति मे ‘तेरह है:- ; सातवीँ पंक्ति मे ‘जैसे-‘, ग्यारहवीँ मे ‘जैसे: -, तेईसवीँ मे ‘जैसे-‘; सोलहवीँ पंक्ति मे ‘जैसे–’; छब्बीसवीँ पंक्ति मे ‘जैसे:-‘, तैँतीसवीँ मे ‘जैसे-‘। इसप्रकार इस ‘मानक पुस्तिका’ के नाम पर हमारे विद्यार्थियोँ, अध्यापकोँ तथा हिन्दीभाषा मे शासकीय-अशासकीय कर्म करनेवाले राजभाषाधिकारियोँ, हिन्दी-अधिकारियोँ एवं अन्य कर्मियोँ को अँधेरे मे रखा गया है। यहाँ निदेशालय से जुड़े समस्त विशेषज्ञोँ और निदेशक को जानना-समझना होगा कि निर्देशकचिह्न एक ही प्रकार का होता है, जिसका आकार योजकचिह्न (-) का लगभग दोगुणा होता है। इसे (–) कहते हैँ, ‘निर्देशकचिह्न’।
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