प्रेम सन्न्यासिओं के मन-मन्दिर का भाव है

किसी के लिये अमूल्य है प्रेम।
कोई है जो प्रेम की
कीमत नहीँ समझता।
कोई लुटता ही रहता है
प्रेम मे।
कोई लूटकर भी
प्रेम से नहीँ भरता।
क्या प्रेम कोई इच्छा
या आवश्यकता है?
क्यों हर कोई इसे पाने का
प्रयास करता है?
प्रेम मे लुटना, पिटना
और बरबाद हो जाना।
इसे ही अपनी नियति
क्यों मान लेता है?
प्रेम मे कोई नियम नहीं
प्रेम मे संयम है।
प्रेम भावनाओं का ज्वार नहीं
जो उतर जाता है।
प्रेम एक अबूझ पहेली की भाँति है।
यह सुलझने से ज्यादा
उलझ जाता है।
रंग-रूप, जाति-वर्ण
और ऊँच-नीच से परे है प्रेम।
प्रेम आयु नहीं देखता
यह अपनी मस्ती मे मस्त है।
सरल हृदय मे यह
सरल से भी सरल है।
कुंठितों के लिये प्रेम
सख्त से भी सख्त है।
प्रेम नज्मो और
गजलों मे नहीं है।
यह प्रेम-गीतों मे भी
आबद्ध नहीं है।
प्रेम सन्न्यासिओं के
मन-मन्दिर का भाव है।
प्रेम वियोगिओं की पीड़ा है
हृदय का घाव है।