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आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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मै अपनी हर लड़ाई अकेले ही लड़ने के लिए समर्थ हूँ; लड़ भी रहा हूँ। जिन्हेँ विश्वसनीय समझता था, उनमे से लगभग सारे दग़ाबाज़ निकले। वाक्-कौशल का परिचय देते हुए, पीठ दिखा गये हैँ।
अस्तु, अपेक्षारहित होकर संघर्ष करते रहिए। आप यदि सत्य के रक्षार्थ संघर्षरत हैँ तो आपकी विजय सुनिश्चित है। हाँ, विलम्ब हो सकता है; परन्तु कालान्तर मे आप सिद्ध कर दिखायेँगे, “अकेला चना भी भाड़ फोड़ सकता है।”
कोई भी संघटन पदार्थोँ से नहीँ बनता; सजीव व्यक्ति ही उसका गठन करता है। “एकला चलो रे” उद्घोष मे क्रान्तिकारिक जन-आक्रोश निहित रहता है। धीर-गम्भीर कारयित्री प्रातिभ-सामर्थ्य से सम्पृक्त (जुड़ा हुआ) एकाकी पदातिक (पैदल चलनेवाला) को गन्तव्य की ओर बढ़ते हुए देखकर कई पाँव साथ-साथ डग भरने लगते हैँ; घर से बाहर निकलनेभर की देर रहती है। ‘समग्र क्रान्ति’ और ‘अन्ना हजारे क्रान्ति’ आदिक अभियान-आन्दोलन इस बात के साक्षी रहे हैँ, यद्यपि कालान्तर मे अन्ना हजारे भी दग़ाबाज़ निकला और अरविन्द केजरीवाल भी। योगगुरु बाबा रामदेव ‘भोगगुरु’ बन गया; किरण बेदी और जाने कितने निकृष्ट स्वार्थ की आराधना रत रहते देखे गये, मानो वह आन्दोलन पूर्व-नियोजित था, जोकि पाप की नीवँ (‘नींव’ अनुपयुक्त शब्द है और अशुद्ध भी।) पर खड़ा था।देश की जनता ठगी-की-ठगी रह गयी। सांघटनिक उद्देश्यपरकता से परे होते ही क्रान्ति के सारे सूत्र विच्छिन्न हो गये। काली महत्त्वाकांक्षा चेहरे पर कालिख़ पुतती रही।
क्रान्ति त्याग की आकांक्षा करती आयी है। ‘समग्र क्रान्ति’ तभी तक सफल रही जब तक संघटन की आड़ मे राजनीति की रोटियाँ नहीँ सेँकी जाती रहीँ। संघटन यदि कुत्सित स्पृहा (चाह) के प्रति आकर्षित होता है तो उसका उद्देश्य धूलिधूसरित बनकर रह जाता है।
जिस देश की भूमि पर दधीचि, कर्ण, रन्तिदेव, भामा शाह, पन्ना दाई, राजा शिवि (उशीनर), महात्मा गांधी प्रभृति (इत्यादिक) महात्यागियोँ के चरण पड़े हैँ, वह देश आज कितना लोभी, परमुखापेक्षित (पराश्रित), अवसर-आवरण- जीवी, ढोँगी, पाखण्डी तथा निर्मम हो चुका है! हम कैसे कह देँ– ”सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा।” आज का राजा अपनी प्रजा के सामने की भी थाली खीँच ले रहा है; वैमनस्य की आग इतना विकराल कर दे रहा है कि मनुष्यता धू-धूकर झुलसती दृष्टिगत हो रही है। एक राजा भरत थे, जो वास्तव मे, एक ‘फ़क़ीर’ रहकर सम्पूर्ण कोशलपुराज का परित्याग करते हुए, ज्येष्ठ भ्राता की खड़ाऊँ के अनुशासन के अधीनस्थ बने रहे। आज भाई ‘भाई’ का रक्त-पिपासु बना हुआ है।
”वसुधैव कुटुम्बकम्” का मन्त्र वितरित करनेवाला कितना संकीर्ण हो चुका है! वह अपने ही देश मे विघटन का बीज-वपन (बीज बोना) कर चुका है, जोकि विषवृक्ष के रूप मे विकसित होकर ”सर्वे भवन्तु सुखिन:” एवं ”विश्व का कल्याण हो” के मूल को विषाक्त करता दिखेगा, तब सारे सूत्रधार ‘बौने’ और ‘किंकर्त्तव्यविमूढ़’ के रूप मे पराजित होते लक्षित होँगे, फिर शेष विश्व उपहास और परिहास करता दिखेगा। ”एकोअहम् द्वितीयोनास्ति” और ”अहम् ब्रह्मास्मि” की अवधारणा और अनुपालना ध्वस्त होती परिलक्षित होँगी।
आइए! अकेले चलना प्रारम्भ कर देँ।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३० नवम्बर, २०२४ ईसवी।)