◆ ‘निबन्ध-विषयक’ अवधारणा प्रकट करने से पूर्व यह अवश्य बलपूर्वक कहना चाहता हूँ कि ‘रचना’ और ‘लेखन’ एक सारस्वत तपस्वी का कर्म है। बहुसंख्य लोग प्रकाशकों को रुपये देकर दो-चार पुस्तकें प्रकाशित करा लेते हैं अथवा प्रकाशक बिना लिये-दिये छाप देते हैं। ऐसे मे से अधिकतर लोग उत्साह के अतिरेक मे यों उछल-कूद करते देखे जाते हैं, मानो उन्होंने ‘भीषण संग्राम’ पर विजय प्राप्त कर ली हो।
मेरी तो गद्य-विधा के ‘निबन्ध-विषय’ पर ही ११ (ग्यारह) पुस्तकें हैं, फिर भी ‘ख़ाली-का-ख़ाली’ दिखता हूँ। पाण्डुलिपियों के प्रणयन से पूर्व सम्बद्ध विषय का अनुशीलन-परिशीलन करता हूँ; आत्मछिद्रान्वेषण और परछिद्रान्वेषण के मध्य संतुलन और सामञ्जस्य स्थापित करता हूँ, फिर ‘ललकार’ को स्वीकार करते हुए, कर्म करने के प्रति सन्नद्ध/तत्पर हो जाता हूँ।
मेरे सम्मुख एक ही प्रश्न रहा है― तुम जिस विषय की पाण्डुलिपि का प्रणयन कर रहे हो, उस विषय पर तो हज़ारों की संख्या मे पुस्तकें हैं, फिर कोई तुम्हारी पुस्तक क्यों पढ़े? हर बार इसी का उत्तर प्रामाणिकता (‘प्रमाणिकता’ अशुद्ध है।) के आधार पर देता आ रहा हूँ; बावुजूद अपने लेखन और अपनी रचनाकर्म से कभी संतुष्ट नहीं रहा।
अब समझते हैं, ‘निबन्ध-लेखन’ को।
वस्तुत: निबन्ध-लेखन एक ऐसा कर्म है, जो लेखक को समग्रता की ओर ले जाता है। जिसने निबन्ध-लेखन कर लिया हो, उसे किसी भी विषय को ‘हस्तामलक’ बना लेने की सामर्थ्य अर्जित हो जाती है।
निबन्ध को यदि मै ‘बुद्धि-विलास’ कहूँ तो इसे न तो ‘अतिशयोक्ति’ की संज्ञा मिलनी चाहिए और न ही ‘वक्रोक्ति’ की; क्योंकि सम्बद्ध परिवेश की भाषा की समझ और उस पर पकड़ रखनेवाला शब्दशिल्पी ‘निबन्ध’ के माध्यम से ‘मनचाहा खेल’ खेल सकता है। अस्तु, निबन्धकार जीवन का ‘तटस्थ द्रष्टा’ होता है।
गद्यविधा के अन्तर्गत निबन्ध-विषय पर ‘ग्यारह कृतियों’ का प्रणयन करने के उपरान्त मैने यह निष्पत्ति प्राप्त की है, “निबन्ध के माध्यम से निबन्धकार अपने व्यक्तित्व का निचोड़ प्रस्तुत करता है, जो उसके अन्त:करण के सात्त्व को सम्यक् रूपेण रेखांकित करता है।”
‘मध्यप्रदेश की एस० आइ०-परीक्षा’ मे मेरी एक निबन्धात्मक पुस्तक की भूमिका मे से एक वाक्य लेकर प्रश्न का गठनकर यह प्रश्न किया गया था :― “निबन्धकार जीवन का तटस्थ द्रष्टा होता है”, किसने कहा है?
(क) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (ख) राहुल सांकृत्यायन
(ग) डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय (घ) आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी
इसे देख-समझकर भी कोई विशेष आत्म-प्रतिक्रिया नहीं हुई।
•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
चित्र-विवरण― अस्सी के दशक से, जिस क्रम मे पुस्तकें प्रकाशित होती रही हैं, उन्हें उसी क्रम मे (यहाँ ‘से’ का प्रयोग अशुद्ध है।) यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
नीचे की तीन पुस्तकें ‘प्रभात प्रकाशन’, दिल्ली से एक साथ प्रकाशित हुई थीं, जबकि शेष पुस्तकों के प्रकाशक पृथक्-पृथक् रहे हैं।
•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २४ मई, २०२३ ईसवी।)