आज ‘विश्वपर्यावरण-दिवस’

‘मौलश्री-पौधारोपण’ (‘पौधरोपण’ और ‘वृक्षारोपण’ अशुद्ध और अनुपयुक्त हैं।) कर कृत-कृत्य (कृतार्थ; संतुष्ट; पूर्ण-काम; आप्त-काम) हुआ

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

आजका ‘विश्व-पर्यावरण-दिवस/विश्वपर्यावरणदिवस/, ‘विश्वपर्यावरण-दिवस (‘विश्व पर्यावरण दिवस’ अशुद्ध है।) मेरे लिए अर्थपूर्ण रहा :– विचारस्तर पर और व्यवहारस्तर पर भी।

इतिहास-प्रसिद्ध धरोहर ‘ख़ुसरोबाग़’/’खुशरूबाग़’, प्रयागराज की अपनी पृथक् प्रतिष्ठा है, जो अपनी स्थापत्यकला (वास्तुकला) और हरीतिमा के लिए विश्रुत रहा है। जहाँगीर के दरबार के शोहरत-याफ़्ता (मश्हूर/चर्चित– ‘मशहूर’ अशुद्ध है।) कलाकार आक़ा रज़ा ने सुलतान बेग़म के इस त्रिस्तरीय मक़्बरे की रूपरेखा बनायी थी, जो मक़्बरा अपनी सौन्दर्यकला की महत्ता को रेखांकित करता आ रहा है।

ख़ुसरोबाग़-परिसर मे ही मुग़लकालीन बादशाह जहाँगीर के पुत्र खुसरो और पत्नी सुलतान बेग़म के मक़्बरे स्थित हैं। ख़ुसरो की बहन निसार बेग़म और बीवी तमोलन का भी मक़्बरा यहीं पर है।

लगभग सत्रह बीघे के भूखण्ड पर स्थित यह वही खुसरोबाग़ है, जहाँ महगाँव, कौशाम्बी, ज़िला इलाहाबाद के क्रान्तिकारी मौलवी लियाक़त अली के नेतृत्व मे स्वतन्त्रता संग्राम के विद्रोह का सूत्रपात हुआ था।

अब मूल विषय पर आते हैं। इसी ख़ुसरोबाग़ के एक सभागार मे आज (५ जून) ‘विश्वपर्यावरण-दिवस’ के अवसर पर प्रकृति और साहित्यिक मंच ‘साहित्याञ्जलि प्रज्योदि’, प्रयागराज के तत्त्वावधान मे पूर्वाह्ण (‘पूर्वान्ह’ और ‘पूर्वाह्न’ अशुद्ध हैं।) ८ बजे से ‘साहित्य मे प्रकृति’ विषयक एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। संचालक ने ‘परिचर्चा’ कही थी, जो कि अनुपयुक्त था; क्योंकि संगोष्ठी का आयोजन था और उसका चरित्र भी दिख रहा था। ‘परिचर्चा’ और ‘संगोष्ठी’ मे अन्तर होता है। निर्धारित वक्ता-वक्त्रियों ने अपने-अपने स्तर से विषय पर वक्तव्य प्रस्तुत किये थे। मैने वेद-वेदान्त के माध्यम से प्रकृति की समृद्धि की ओर संकेत किया था और प्रकृति के प्रति कुदृष्टि करने (यहाँ ‘रखने’ अशुद्ध है।) वालों की हमारे वेद, पुराण तथा उपनिषदों मे किन शब्दों मे भर्त्सना की गयी है, उस संदर्भ से भी अपने श्रोतावर्ग को जोड़ा था।

‘वेद-वेदान्त मे प्रकृति का निरूपण’-विषयक व्याख्यान करते हुए आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय।

यहाँ मै बलपूर्वक कहना चाहूँगा– किसी भी आयोजन मे ‘संयोजक’ और ‘संचालक’ की महती भूमिका होती है। संचालक यदि संचालन करते समय बार-बार स्वयं को ‘वक्ता’ के रूप मे अथवा ‘अतिरिक्त’ भूमिका मे दिखायी दे तो समझ लीजिए, वह आयोजन शिथिल पड़ जाता है। प्रत्येक वक्ता के विचार प्रस्तुत करने के पश्चात् यदि संचालक नाना संदर्भों को उपस्थित करने लगे; शेरो शाइरी सुनाने लगे तो इसका सीधा-सा अर्थ है, वह आमन्त्रित वक्ताओं के उद्बोधन के लिए निर्धारित समय के साथ बलप्रयोग कर रहा है।

मुझे संयोजक ने बताया था कि समारोह की समाप्ति पूर्वाह्न ९.३० पर कर देनी है; परन्तु खेद है! संयोजक ‘कथन’ और ‘कर्म’ के धरातल पर संतुलित नहीं रह सके; प्रभावत:, निर्धारित समय पर समापन न हो सका। आयोजन विचार करने का था; किन्तु कविताएँ भी पढ़ी गयी थीं, जिनका कोई औचित्य ही नहीं था; यहाँ तक कि जो मुख्य अतिथि थे, वे भी कविता सुनाने का लोभ-संवरण कर न सके थे। अध्यक्षीय सम्बोधन के अनन्तर संयोजक को आभार-ज्ञापन करना था; अफ़्सोस! (‘अफ़सोस’ अशुद्ध है।) संयोजक भी राह से भटक गये थे और दोहे सुनाने लगे थे। इन विसंगतियों का परिणाम और प्रभाव यह हुआ कि आयोजन के मध्य मे ही संख्याबल अकस्मात् घट गया।

मुझे श्रोतावर्ग के समक्ष अपने विषयान्तर्गत उन विन्दुओं पर प्रामाणिक कथन करना था, जिनसे लगभग सभी अनभिज्ञ थे; किन्तु संचालक के अतिरिक्त ‘विद्वत्ता-प्रदर्शन’ के कारण मेरा वक्तव्यसमय भी उनके द्वारा अधिगृहीत (‘अधिग्रहित’, ‘अधिग्रहीत’ तथा ‘अधिगृहित’ अशुद्ध हैं।) कर लिया गया था।

अपने इस कठोर संदेश को मैने सम्बन्धित जन तक भी सम्प्रेषित कर दिया है; नामोल्लेख इसलिए नहीं कि वे मेरे ‘अपने’ हैं।

उक्त आयोजन से विमुक्ति पाने के अनन्तर (यहाँ ‘उपरान्त’ अशुद्ध है।) मुझे आयोजन का जो समृद्ध पक्ष दिखा था और लगा था, वह ‘मौलश्री’ (‘मौलशिरी’ और ‘मौलसिरी’ अशुद्ध है।) पौधे का रोपण/आरोपण था। मै उस निरीह-से लक्षित हो रहे पौधे को, ‘महावृक्ष’ बनने की कामना के साथ प्रमुदित मन से उसकी जड़ को धरती को समर्पित करने के पश्चात् जलसिंचन करते हुए, स्वयं को उसके संवर्द्धन और वय-वार्द्धक्य की प्रक्रियाओं के साथ सम्बद्ध करता रहा।

‘मौलश्री’ पौधा का रोपण करने के अनन्तर सींचन करते हुए, आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय; पार्श्व मे सहयोग कर रहे श्री आर० एस० वर्मा (पूर्व-मण्डलायुक्त), डॉ० प्रदीप चित्रांशी, डॉ० रवि मिश्र तथा श्री केशवचन्द्र सक्सेना (साहित्यकारवृन्द)।

उसी परिसर मे ही भाँति-भाँति के वृक्षों की मनोहारी छाया मे बैठे-खड़े-लेटे प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं मे भागीदारी करने के लिए तत्पर अनेक भागों मे विद्यार्थिमण्डल दिख रहा था। मेरे जीवन का मुख्य उद्देश्य शिक्षण-दीक्षण (प्रशिक्षण) रहा है। मै स्वयं को रोक न सका और अपने एक शुभचिन्तक के साथ उधर ही चल पड़ा था। मैने शुभचिन्तक से पहले ही कह दिया था– मेरा नाम नहीं बताना है; एक अपरिचित की भूमिका मे रहना है।

कुछ विद्यार्थी प्रकीर्णावस्था (बिखरे हुए) मे, तो कुछ मण्डल मे बैठकर-खड़े होकर परीक्षार्थी की भूमिका मे दिख रहे थे।

भाषिक संवाद, प्रश्न-प्रतिप्रश्न तथा उत्तर-प्रत्युत्तर के क्रम चलते रहे। उन विद्यार्थियों की जिज्ञासा बनी रही– आख़िर आप कौन हैं?

एक स्थान पर मेरे उस शुभचिन्तक से रहा नहीं गया और उन्होंने उद्घाटन कर ही दिया; फिर क्या था! अपरिचय का आवरण हटा और ‘गुरु-शिष्य’ का वातावरण विकसित होने लगा। लगभग ३ मिनट के बाद आगे बढ़ा।

उसके बाद अन्य विद्यार्थिमण्डल के मध्य पहुँचने से पूर्व शुभचिन्तक महोदय से परिचय को ‘अज्ञात’ बनाये रहने का निर्देश कर दिया था (यहाँ ‘दिया था’ अशुद्ध है।), जिसका उन्होंने न चाहते हुए भी पालन किया था।

निष्कर्षत:, वे सभी विद्यार्थी अध्यवसाय और परिश्रम कर रहे हैं; परन्तु शब्दप्रयोग की दृष्टि से उनकी ‘दशा और दिशा’ अत्यन्त रुग्ण है; कारण कि जो उनका प्रमुख था और जो प्रश्नपत्र बनाकर उन सभी मे (यहाँ ‘को’ अशुद्ध है।) वितरण करता था, उसे ही शुद्ध हिन्दी की समझ नहीं थी। उस प्रश्नपत्र के लगभग सभी प्रश्नात्मक वाक्यविन्यास अशुद्ध थे; शीर्षक ही अशुद्ध था। ‘विकास’, ‘यजुर्वेद’ तथा ‘निम्नलिखित’ के स्थान पर सभी विद्यार्थियों को जो ‘प्रश्नपर्ण’ दिये गये थे, उन सभी मे ‘विकास’, ‘यजुर्वेद’, निम्नलिखित’ के स्थान पर क्रमश: ‘विकाश’, ‘यजुवेद’ तथा ‘निम्न’ अंकित थे। प्रश्नान्त मे जहाँ ‘विवरणचिह्न’ (:–) लगाया जाना चाहिए वहाँ ‘निर्देशचिह्न’ (–) लगाये गये थे; प्रश्नात्मक चिह्न (?) के स्थान पर ‘निर्देशकचिह्न’ के प्रयोग थे। वे सभी ‘विरामचिह्नप्रयोग से अनभिज्ञ दिख रहे थे। विषयगत प्रश्नों के कई उत्तर-विकल्प भी अशुद्ध और अनुपयुक्त थे। प्रथम दृष्ट्या सभी प्रश्न गाइड आदिक से लिये गये लग रहे थे। वस्तुपरक/वस्तुनिष्ठ प्रश्नात्मक वाक्यों के गठन और उनके शुद्ध उत्तर-विकल्प (‘विकल्पों’ अशुद्ध है।) के चयन सदैव मानक पुस्तकों के आधार पर ही करने चाहिए; क्योंकि जितनी भी पत्रिकाएँ, गाइड आदिक प्रकाशित की जाती हैं, उनमे से लगभग सभी एक-दूसरे के प्रश्नो की चोरी करके ही तैयार की जाती हैं, जिनका मूल चरित्र ‘काटो और चिपकाओ’ (कट् ऐण्ड पेस्ट– ‘एंड, एण्ड तथा एन्ड’ अशुद्ध हैं।) रहा है।

एक स्थान पर ‘मिष्टान्न’ और ‘मृत्यूपरान्त’ से विद्यार्थी अपरिचित दिखे। ‘जन्मभूमि’, ‘रामनाम’ किस समास का उदाहरण है, नहीं बता सके। उनकी ‘हिन्दी’ के प्रति जागरूकता और सजगता ‘नहीं’ के बराबर दिख रही थी। यही स्थिति बनी रही तो उन सभी को उसका भुगतान करना ही होगा।

अधिकतर विद्यार्थी ‘टी० जी० टी०’ और ‘पी० जी० टी०’-परीक्षाओं मे भागीदारी के लिए तत्पर थे। निस्सन्देह, लगभग सभी विद्यार्थियों मे ऊर्जा थी; आवश्यकता है तो उनके सम्यक् मार्गदर्शन की।

मैने उन सभी विद्यार्थियों के साथ ६ मिनट तक का समय-यापन किया था, जो कि ‘वास्तविक’ समय का सदुपयोग था।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ५ जून, २०२२ ईसवी।)