रुक मत सजनी, अब चल सजनी

अवधेश कुमार शुक्ला ‘मूरख हृदय’, कछौना

चल री सजनी, छँटती बदली,
अब क्या सोचे मन की पगली ।
कूटस्थ पंचतन्त्री बगरी ,
अब क्या ढूंढे, क्यों री सजली ।।

निश्चेष्ट नियति, परिभाव शून्य,
अवधान शून्य, नित अन्य – अन्य ।
आद्यन्त हीन, अवलम्ब कहाँ ,
भटकी फिरती मचली- मछली ।।

उस सौध सदन में भी तम था ।
स्तब्ध प्रस्फुटन विचलित सा ।
मैंने सोचा , ऐसा समझा,
पुँजिका कोई उजली उजली ।।

निर्भ्रांत, अहैतुक अस्पर्शित।
वह भूतजन्य सी थी उर्मित ।
अन्तः अतुष्ट, अपशिष्ट- भाव,
विछिन्न विकृत उथली- पुथली ।।

नमनीत, निवेदित, बिम्बवती,
सस्सार महाप्रस्थान पथी ।
पगली मन की , कवली क्रम की,
रुक मत सजनी, अब चल सजनी ।।

                 अवधेश कुमार शुक्ला
                     मूरख ह्रदय
                   हनुमान जयन्ती
                     चैत्र पूर्णिमा
                   08/04/2020