दृष्टिबोध का वाचन

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

पसीने से हो तर-ब-तर,
हवा चलती रही बेक़द्र।
सूरज मद्धिम होता रहा,
दीये-बाती-सा जलकर।
गुस्ताख़ चेहरा बूढ़ा हो रहा,
साल का ख़त्म होता सफ़र।
आगाज़ अंजाम से यों बोला,
”तूने बरपाये हैं बहुत क़ह्र।
सीने पे मूँग तूने दले बहुत,
और पिलाये भी बहुत ज़ह्र।
दिन में तारे बहुत उगे आये,
होती रही रात यहाँ सहर।
‘नमामि गंगे’ भी बिसर गये,
गंगा बनती रही है नहर।
बूढ़ी ग़ज़ल बदल डालो,
भली लगती नहीं यह बह्र।
अब गाँव ‘गाँव’ ही नहीं रहा,
उकड़ू होने लगे सब शहर।
कुछ अच्छा भी दिखता रहा,
जवाँ दिखते रहे सब पहर।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३१ दिसम्बर, २०२० ईसवी।)