अतीत-अतीत होते मेरे सहयात्री

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

अपने बलिष्ठ कन्धों पर
तीन सौ पैंसठ दिनों के भार
पल-पल लाद कर
मुखमण्डल पर निष्कामता का भाव लिये
अनवरत-अनथक यात्रा करते-करते
अतीतोन्मुख हो रहे मेरे सहयात्री!
तुम क्लान्त हो चुके हो;
शिथिल गात हो चुके हो।
तुम्हारा शयनकक्ष
तुम्हारी बाट जोह रहा है;
अब तुम्हें चिर-निद्रापथ पर गमन करते हुए
नवागत को बाहुपाश में आबद्ध कर
मांगलिकता का सूत्र समझा
अतीत में विलीन हो जाना है।
तुम्हारे जीवन के अवसान की
पटकथा लिखी जा चुकी है।
काल-चक्र के दोनों पहिये
जैसे ही
यामिनी-बेला में
अंक बारह का संस्पर्श करेंगे,
तुम नेपथ्य में समा जाओगे–
एक सुलझा-अनसुलझा इतिहास बनकर।
शिकवा-शिकायत-गिला
तुमसे नहीं, स्वयं से है।
काश! कुछ सँभल लिये होते ………..
इतना भी गिला नहीं
सँभाल न सकूँ, अपने चेतन को
सन्तुलित न कर सकूँ
जीवन की ओर और छोर को।
मेरे मन, बुद्धि तथा कर्म ने
एक अभिनव रूप में
आकार लेने की स्थिति आरम्भ कर दी है।
अगले तीन सौ पैंसठ दिनों के समानान्तर।
मेरी मति-रति-गति
विभावना और सम्भावना के झूले में झूलती हुईं
अकरणीय-करणीय की जुगलबन्दी के साथ
संवाद और विवाद,
संस्कृति और विकृति की पटकथा-
लेखन करने का पूर्वाभ्यास कर रही हैं।
जीवन की नाट्यशाला में
अज्ञात-ज्ञात भूमिका-निर्वहन करने का संदेश
अपनी अन्तश्चेतना तक सम्प्रेषित कर चुका हूँ।
मेरा पात्र विविध भाव-भंगिमाओं के साथ
नेपथ्य में बैठा
अपने ‘होने’ को सिद्ध करने के लिए यत्नशील है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३१ दिसम्बर, २०२० ईसवी।)