डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
अब हथेली पर सूरज उगाता हूँ मैं,
अपनी आँखों में चन्दा बसाता हूँ मैं।
सीने में दहकता है आग का गोला,
भूख लगने पर उसको चबाता हूँ मैं।
आँखों में उग आये बबूल के काँटें,
नागफनी से उनको हटाता हूँ मैं।
मेरे बदन को देखो नहलाती चाँदनी,
अल्हड़ हवा से ख़ुद को सुखाता हूँ मैं।
ख़ुदगर्ज़ मुझसे मीलों दूर हैं रहा करते,
वफ़ादारों से हरदम निभाता हूँ मैं।
मैं रास्ते नहीं मंज़िल तय किया करता,
राज़ कामयाबी की हर बताता हूँ मैं।
(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, इलाहाबाद; १५ मई, २०१८ ई०)