
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
मेरे विश्वसनीय एकवर्षीय सहयात्री!
अपने बलिष्ठ कन्धों पर,
तीन सौ पैंसठ दिवसीय अनियन्त्रित-नियन्त्रित भार
प्रतिक्षण लादकर,
अनवरत-अनथक यात्रा करते-करते,
तुम अतीतोन्मुख होते जा रहे हो।
त्वरित गति मे कृषकाय१ होते,
तुम्हारे स्कन्धप्रान्त२,
अब क्लान्त३ हो रहे हैं।
तुम श्रान्त४ हो रहे हो;
तुम निरीह-दशा की ओर अग्रसर हो।
विश्रान्ति५ प्रतीक्षारत है,
तुम्हारे पैरों की छालों मे मरहम लगाने के लिए;
आगोश मे भरने के लिए;
थपकी की ताल पर;
सुमधुर स्वर मे लोरियाँ गा-गाकर, सुलाने के लिए।
तुम्हारी नियति,
अब तुम्हें चिर-निद्रा की ओर ले चलने के लिए तत्पर है।
तुम्हारे जीवन के अवसान की
पटकथा लिखी जा चुकी है।
कल-चक्र के पहिये जैसे ही मध्यरात्रि मे प्रवेश करेंगे;
अंक बारह का संस्पर्श करेंगे,
तुम नेपथ्य मे समाते चले जाओगे।
एक सुलझा-अनसुलझा इतिहास बनकर।
शिकवा-शिकायत-गिला
तुमसे नहीं, स्वयं से रहेगा।
काश! कुछ सँभल लिया होता …..।
इतना भी गिला नहीं,
सँभाल न सकूँ,
अपने चेतन को;
दृष्टि-निक्षेपण/दृष्टिपात न कर सकूँ,
अपने अवचेतन पर।
वही तो चेतन का मूलाधार है;
जब-तब टाँकता रहता है,
असंश्लिष्ट६-संश्लिष्ट७ घटनाएँ-परिघटनाएँ।
अचेतन चिरन्तन निर्मोही है।
अब सन्तुलन के तुला पर,
तोलना है,
जीवन की ओर और छोर को।
सखे!
मेरा स्वत्व८ आकार लेना आरम्भ कर दिया है;
अगले तीन सौ पैंसठ दिनो के समानान्तर।
मेरी मति-रति-गति की समन्वित९ प्रतीति१०,
विभावना११ और सम्भावना के झूले मे झूलती हुई;
आरोह-अवरोह की प्रतिस्पर्द्धात्मक जुगलबन्दी के साथ धुन रचने;
संवाद और विवाद,
संस्कृति और विकृति के कथोपकथन को,
रंगमंच पर उतारने का पूर्वाभ्यास कर रही है।
उन्हें विदित है,
मै रिक्ति और विरिक्ति१२ का पक्षधर कभी रहा ही नहीं।
निरपेक्ष और सापेक्ष धरातल
कभी समदर्शी नहीं होता।
जीवन की यति१३,
विभ्रम से परे रह;
सम्भावना के नव-नूतन डेहरी पर,
प्रतीक्षारत है,
आयाम के नव प्रतिमान१४ गढ़ने के लिए।
आओ! परिरम्भ१५ की स्थिति को जी लें
और निनादित१६ कर दें :–
“एकोहम् सर्वेषाम्।”
दसों दिशाओं मे शंखनाद कर दें :–
“चरैवेति-चरैवेति-चरैवेति।”
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
ज्ञातव्य (जानने-योग्य/जानने के योग्य) शब्दार्थ :–
१दुर्बल शरीर २कन्धे का स्थान ३थका हुआ ४शिथिल ५विश्राम (ठहरने का स्थान) ६मिश्रणमुक्त ७मिश्रणयुक्त ८अपना होने का भाव ९मिला हुआ १०विश्वास ११जिसमे कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति दिखायी जाती है। १२ ख़ाली न होने का भाव १३विराम १४आदर्श के अनुरूप बनायी गयी वस्तु १५आलिंगन १६ध्वनित (ज़ोर से शब्द करता हुआ।)
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३१ दिसम्बर, २०२२ ईसवी।)