बेचैन धार नदी-संग करवटें बदलती रही

महब्बत को क़ब्रगाह मे दफ़्न कर लौटे हैं, ज़ख़्मी पाँव अभी,
थोड़ी साँस उधार मे दे दो, सुबूत हैं आख़िरी दाँव अभी।
परछाईं लगना चाहती है गले, शिद्दत से बूढ़े बरगद के,
एहसासात की चादर दाग़भरी, दिखता न कोई ठाँव अभी।
इतिहास-भूगोल बाँचते-बाँचते, होंठ सुर्ख़ पड़ते ही रहे,
तपिश बरसती इस तरह, दिखती न कहीं छाँव अभी।
बुलबुल की बोली फँसती रही, हर पल ठगी के जाल मे,
नज़रें घुमाओ जिस तरफ़, उधर ही काँव-काँव अभी।
बेचैन धार नदी-संग करवटें बदलती रही पल-पल यहाँ,
लड़खड़ाते रहे पतवार हैं, मझधार मे दिखती नाव अभी।
यह ज़िन्दगी मश्वर: देती रही, चुप रहकर संजीदगी से हमे,
तेरे शहर के लोग बेमुरव्वत हैं बहुत, चल अपने गाँव अभी।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २० फ़रवरी, २०२४ ईसवी।)