राघवेन्द्र कुमार राघव–
हमने पढ़ा है कि प्रेम सत्य है और शाश्वत भी है।
सबने यही जाना कि प्रेम शक्ति है और आदत भी है।
क्या आपको नहीं लगता कि प्रेम मे पूर्णता का अभाव है?
और सत्य यही है कि पूर्णता ही सबका अन्तिम पड़ाव है।
निःस्वार्थ प्रेम की केवल कल्पना की जा सकती है।
स्वार्थ से विरक्ति केवल तपस्या से आ सकती है।
अब आप ही बताओ कैसे मान ले प्रेम ही ईश्वर है?
लगता है कि प्रेम कुछ नहीं ये व्यंजना से रहित स्वर है।
प्रेम जब तक भौतिक है तब तक इसका अस्तित्व है।
प्रेम कभी ईश्वर नहीं हो सकता यह स्वभाव से द्वित्व है।
कामनाहीन प्रेम और कुछ नहीं समाधि का दूसरा नाम है।
यदि आप समाधिस्थ हो गये तो बताओ प्रेम का क्या काम है?