
डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)p
सदियों से भटकती इक तलाश लिखता हूँ ,
हवा,पानी,आँधी और बतास लिखता हूँ।
सूख रही ताल-तलय्या दूभर है अब पानी,
इस काइनात१ की अब लिखता हूँ
हमक़दम दग़ा दे गया कुछ दूर चलते ही,
अपनी मंज़िल की हर खटास लिखता हूँ।
छेनी-हथौड़ी-पत्थर ले खो हो गया कहीं,
ख़ूबसूरत की चाह में तराश लिखता हूँ।
‘पृथ्वी’ तेरे आँगन में है क़ुद्रत का हर रंग,
पतझर से जूझते अमलतास लिखता हूँ।
क्लिष्ट शब्दार्थ :—–
१- संसार २- मुक्ति।
(सर्वाधिकार सुरक्षित : पृथ्वीनाथ पाण्डेय, इलाहाबाद; ३१ अगस्त, २०१८ ईसवी)