रंग दिखाती है कुर्सी

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

मस्त तराने गा-गा झूमे, कहनी कहती कुर्सी है,
नाच-नचाती दुनिया को है, धुन मे रहती कुर्सी है।
भाव उसका हरदम ऊपर, क्रय-विक्रय का खेल यहाँ,
जेब दिखा हो जिसका भारी, उसको गहती१ कुर्सी है।
चेहरा जिसका अव्वल पापी, हो कुकर्मो की खेती,
ऐसे धूर्त्त जहाँ भी होते, उसको लहती२ कुर्सी है।
प्रेम-कृपा को मिलके बाँटे, पथ उन्नति का पाता वह,
पाठ एक है, भूल न जाना, उससे डहती३ कुर्सी है।
नाता जिसका कदाचार से, जन का द्रोही होता जो,
लाचारी होती है, फिर भी, उसको सहती कुर्सी है।
वर्ज्य है सीमा, लक्ष्मणरेखा, पालन करना होगा ही,
अटके-भटके पार गये तो, दिखती ढहती कुर्सी है।
बुनियादी बातें भी कुछ हैं, बोध ज़रूरी है करना, 
अनदेखा परिणाम है घातक, हर सू दहती४ कुर्सी है।

शब्दार्थ :― १ग्रहण करती २लाभ पाती ३द्वेष करती ४बह जाती।

(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ८ जुलाई, २०२३ ईसवी।)