समय का समादर करना सीखेँ

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय का संदेश

समय सबको समान रूप से देखता आ रहा है। वह सबकी समस्त नकारात्मक-सकारात्मक गतिविधियोँ का एकमात्र साक्षी रहा है। वह प्रत्येक मनुष्य का मूल्यांकन उसके कर्मो के आधार पर करता आ रहा है। समय कभी निष्ठुर नहीँ होता, प्रत्युत मनुष्य की तामसिक प्रवृत्ति जब ‘अतिवाद’ की परिधि के साथ जुड़ जाती है तब उसके वैकारिक (विकार से सम्बन्धित) आचरण की सभ्यता प्रकाशित होने लगती है; परिणामत:-प्रभावत: वह दण्ड का भागी बनता है, फिर वह कहता है– समय उसका साथ नहीँ दे रहा है; उसका समय ख़राब चल रहा है, जबकि समय आवश्यकतानुसार उन्मुक्त गति-मति-रति से अपना सत्, रज और तम रूप धारण कर बढ़ता रहता है।

किसी प्रकार के संक्रमणकाल की स्थिति की पुनरावृत्ति हो सकती है, हम इसे अस्वीकार नहीँ कर सकते। वैसे वातावरण मे, हम सभी को सपरिवार, इष्ट-मित्रवृन्द के साथ उस प्रतिकूल समय मे अपनी इच्छाशक्ति को सुदृढ़ बनाये रखने की आवश्यकता है। यदि आप ऊर्जावान् रहते हुए, अभावग्रस्त व्यक्ति की किसी रूप मे सहायता करने मे समर्थ होँ तो निश्चित रूप से करेँ। आपकी यह गुणधर्मिता आपकी ‘सदाशयता’ को मनुष्यता के उत्तुंग शिखर पर समासीन करेगी।

कालचक्र कभी सम नहीँ रहता। यही कारण है कि सभी के जीवन मे कभी आँखोँ मे बदली घिरती रहती है तो कभी प्रकृति मे। यही दु:ख-सुख का गमनागमन (‘आवागमन’ शब्द अशुद्ध है।) भी है। कोई स्वयं को यह समझे कि वह अद्वितीय पराक्रम से परिपूर्ण है तो यह उसकी भूल है वा फिर अहम्मन्यता के आवरण के कारण उसकी दृष्टि का ‘सत्य-संधान’ करने मे समर्थ नहीँ बन पाना है।

यथार्थ के धरातल पर हमारा-आपका कोई मूल्य नहीँ। ऐसा इसलिए कि जो कुछ दिखता है, वह ‘सत्य’ नहीँ होता, अन्यथा ‘मिथ्या’ का अस्तित्व कबका मिट चुका रहता।
मैथिलीशरण गुप्त स्मरण हो आते हैँ, “मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।”

निष्कर्षत: हमे पुन: मैथिलीशरण गुप्त की काव्यात्मक कृति ‘भारत भारती’ का आश्रय लेना होगा, जिसमे समय का निरूपण इसप्रकार से होता है :–
“संसार मे किसका समय, जो एक-सा रहता सदा,
है निशि दिवा-सी घूमती, सर्वत्र विपदा सम्पदा।
जो आज राजा बन रहा है, रंक कल होता वही,
जो आज उत्सवमग्न है, कल शोक से रोता वही।”

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १२ मई, २०२५ ईसवी।)