विकास-योजनाएँ नहीं, ‘विनाश-योजनाएँ’ कहो

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय-


डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

केन्द्र और राज्य की सरकारों ने जो भी विकास-योजनाएँ बनायी हैं, उनमें निहित जातीयता, साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता तथा भाग्यवादिता पर आधारित सामाजिक रूढ़ियों और परम्पराओं ने बाधा पहुँचायी है। प्रदत्त, अर्जित पद तथा सम्पदा में सामंजस्य नहीं रहा है किन्तु वर्तमान में कर्म के सिद्धान्त, जीवन-चक्र के सिद्धान्त, वर्ण-व्यवस्था संस्तरण, खण्डात्मक परलोकवाद, शुचिता-अशुचिता की धारणाओं तथा पुरुष-प्राधान्य-जैसे तत्त्वों को नयी समाज में त्यागने का प्रयास हो रहा है। इसे इसके लक्ष्य तक पहुँचाने में हम-आप सबका सक्रिय योगदान अपेक्षित है।
देश के सारे राजनीतिक दल अपने-अपने स्तर से समाज में ज़ह्र घोलते हुए, अपने-अपने उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं और समाज का प्रत्येक घटक न्यस्त स्वार्थ में आकण्ठ डूबते हुए, उन्हें अपना समर्थन दे रहा है। यह बद्ध सामाजिक मानसिकता समाज और राष्ट्र के उन्नयन में नितान्त घातक सिद्ध हो रहा है।
यथार्थ यह है कि देश का औसत नागरिक राष्ट्रहित की अवहेलना करते हुए, ‘स्वयं’ तक सीमित रहकर, येन-केन-प्रकारेण स्वार्थ सिद्ध करने में लगा हुआ है। बुद्धिजीवी-वर्ग ‘बिकाऊ माल’ की भूमिका में यत्र-तत्र-सर्वत्र लक्षित हो रहा है, जिसका प्रत्यक्ष-परोक्ष लाभ ‘सरकारी दलाल’ उठाते आ रहे हैं। यही कारण है कि देश की लगभग सारी विकास-योजनाएँ सार्थक दिशा में दम तोड़ती नज़र आ रही हैं। ऐसी विसंगतियों पर अब भरपूर प्रहार करने का समय आ चुका है।


(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, इलाहाबाद; ९ फरवरी, २०१८ ई०)