शिक्षक दिवस पर विशेष : “नायमात्मा बलहीनेन लभ्य”

डॉ• निर्मल पाण्डेय

डाॅ. निर्मल पाण्डेय (इतिहासकार/लेखक)

शिक्षा का सही उद्देश्य बताते एक उद्बोधन में, जिसे डॉ. राधाकृष्णन ने 23 जनवरी 1957 को कलकत्ता विश्वविद्यालय शताब्दी वर्ष में उपाधि-वितरण-समारोह के अवसर पर दिया था, कहते हैं: ‘पुराने विश्वविद्यालयों (या पढ़ सकते हैं विश्वविद्यालयों के पुराने कार्यों) के काम में दोष निकलना निरर्थक है। उन्होंने कठिन परिस्थियों में अच्छे से अच्छा काम किया। लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। हमारी क्रांति अभी समाप्त नहीं हुयी है। हमें अभी हिंसा, धर्मान्धता और बुद्धि-विरोधी शक्तियों से अपनी रक्षा करनी है। हमें ग़रीबी, बीमारी, निरक्षरता और बेकारी से लड़ना है। हमें लोगों के मानसिक अंधकार से बहुत समय तक लड़ना है।’

इस बात को स्वीकारने में उन्हें गुरेज़ नहीं रहा कि, ‘किसी सीमा तक अपने छात्रों की अल्पज्ञता और आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव के लिए, सामाजिक अन्याय के प्रति उनकी सहनशीलता के लिए, सामाजिक बुराइयों से लड़ने की उनकी भावना के अभाव के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं।’

इसलिए वे आह्वान करते हैं कि, ‘आइए, विश्वास के साथ काम करें, अपने लोगों को संगठित करके उन्हें शांति के रक्षक बनावें। इससे पारस्परिक सहनशीलता उत्पन्न होगी, मानवता का उद्धार होगा और सत्य और प्रेम की विजय होगी।’

और हाँ, वो मानते थे कि इस विद्वता में प्रेम का समावेश होना चाहिए। जोसलिन हेनेसी की एक पुस्तक की भूमिका मे लिखते हुए वे इस बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं:

“साक्षरो विपरीतत्वे राक्षसोभवति ध्रुवम” अर्थात जो लोग विद्वान तो हैं, पर जिनके पास प्रेम नहीं है, वे वास्तव में बौद्धिक उद्दंडता, आध्यात्मिक मूढ़ता और हार्दिक निष्ठुरता भरे राक्षस ही हैं।’

5 दिसंबर 1953 के साल दिल्ली विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बोलते हुए देश-समाज-राष्ट्र के उन्नयन के लिए शिक्षा के सही उद्देश्य हेतु सर्वाधिक वांछित तत्व के तौर पर नागरिकों के चरित्र को चिन्हित करते हुए कहा:

चरित्र ही प्रारब्ध है“। यह सूत्रवाक्य व्यक्ति और राष्ट्र, दोनों पर लागू होता है। हम ग़लत सामग्री से सही वास्तु का निर्माण नहीं कर सकते। देश-राष्ट्र-समाज के लिए आपकी बौद्धिक योग्यता और शिल्प-कौशल से भी अधिक महत्वपूर्ण है आपकी निष्ठा। हमारा देश प्रचुर साधन-संपन्न है, नर-नारियों की भी कमी नहीं। हम अपने देश-समाज-राष्ट्र के पुनर्निर्माण के पावन कार्य में आत्म-त्याग की भावना से, सगर्व, एकजुट होकर इस कार्य में लग जाएँ, तो हमें अपना लक्ष्य पाने से कोई की शक्ति रोक नहीं सकती।’

‘एक राष्ट्र के रूप में हमारी नियति हमारी भौतिक सम्पदा की अपेक्षा हमारी आध्यात्मिक शक्ति पर अधिक निर्भर करती है। यह सच है, “नायमात्मा बलहीनेन लभ्य” अर्थात निर्बल व्यक्ति पूर्णत्व के लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते। ‘निर्बल’ से हमारा तात्पर्य शारीरिक रूप से निर्बल व्यक्ति से नहीं, वरन आत्मिक रूप से निर्बल, अर्थात “आत्मनिष्ठाजनितवीर्यहीनेन” से है।’

साथ ही वह इस बात पर जोर देते हैं कि, ‘नागरिकों का उत्साह और उसका तेज किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे बड़ी संपत्ति है। यदि हम किसी देश की जनता का उत्साह भंग कर देते हैं, तो हम उसके भविष्य को संकट में डालते हैं। इसके उलट यदि हम अपनी आत्मा को बलवती बनवाएं, तो हमारा भविष्य, हमारे राष्ट्र का भविष्य उज्जवल होगा, अवश्य उज्जवल ही होगा।’

भारतीय राष्ट्र-समाज-मानस और आध्यात्म के पॉवर हाउस स्वामी विवेकानंद, स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर और थियोसोफी ने डॉ. राधाकृष्णन में जो सांस्कृतिक आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता की भावना का संचार किया, डॉ. राधाकृष्णन में सदैव वह उसी गुरुता के साथ विद्यमान रहा।(डॉ. राधाकृष्णन की आज जयंती है, जयंती पर उन्हें सादर नमन) और उसी गुरुता के साथ आज भी यह प्रतिध्वनित होता रहता है:

प्रसार्य धर्मध्वजम,
प्रपूर्य धर्मशखम्
प्रताडय धर्मदुन्दुभिम्
धर्म कुरु, धर्म कुरु, धर्म कुरु…
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शिक्षक दिवस पर देश-समाज-राष्ट्र को रचने-गढ़ने और आज भी उसके निरंतर उन्नयन हेतु प्रयासरत सभी शिक्षकों को नमन।

#OurTeachersOurHeroes