‘शिक्षक-दिवस’ पर विशेष : हम कैसे कह दें, “आचार्य देवो भव?”

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

एक वह समय था, जब अध्यापक की सम्पूर्ण समाज में सर्वाधिक मान-प्रतिष्ठा हुआ करती थी, तब यह उदात्त शब्दावली शोभा देती थी, “आचार्य देवो भव।” एक समय आज का है, जब अध्यापक समाज की दृष्टि में पतित होता जा रहा है। उस परिधि में अध्यापकों का वह वर्ग भी आता है, जो मेधासम्पन्न और अनुशासित है तथा आत्माभिमान से युक्त भी; परन्तु व्यवस्था के अत्याचार के विरुद्ध स्वर उठाने में अक्षम, असमर्थ, लाचार तथा विवश रहता है। ऐसे कुण्ठित लोग भी उन्हीं आपराधिक कृत्यों का एक उपयोगी हिस्सा बनकर रह जाते हैं और गर्व से कहते हैं– हम तो कर्त्तव्यपरायण हैं; हम तो योग्य हैं; हम उनमें से नहीं, जो और लोग हैं। धिक्कार है, उनकी नपुंसक कर्त्तव्यपरायणता और योग्यता को, जो मात्र अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए परोक्षत: अन्याय का एक हिस्सा बने रहते हैं।

‘कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय’ की ऐतिहासिक जघन्य घटना ने इस स्थिति को समाजपटल पर सुस्पष्ट कर दिया है कि मात्र अध्यापक बनने के लिए व्यक्ति ‘महापाप’ तक कर सकता है। ऐसे चरित्रहीन लोग अपने विद्यार्थियों के अन्त:करण में कौन-सा जीवनमूल्य और संस्कार आरोपित करेंगे, इन्हें आसानी से समझा जा सकता है। छद्म शैक्षिक प्रमाणपत्रों के सहारे अध्यापक बननेवाले क्या कभी किसी समाज के लिए ‘श्रद्धेय’/ ‘आदरणीय’ हो सकते हैं? दो टूक उत्तर है– कदापि नहीं।

ऐसी स्थिति तब आती है, जब अध्यापक अपने कर्त्तव्य से च्युत होता लक्षित होता है। एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे अध्यापकों की है, जो वास्तव में नितान्त अयोग्य हैं। ऐसे लोग ‘रिश्वत’ और ‘पहुँच’ के बल पर शैक्षिक उपाधियाँ (डिग्रियाँ) ख़रीद लेते हैं; बटोर लेते हैं और जो वास्तव में, योग्य अध्यापक होते हैं, उनके सीने पर मूँग दलते हुए, अपने अकर्मण्य होने का परिचय देते रहते हैं। इस वास्तविकता को यदि समझना हो तो उत्तरप्रदेश के किसी ज़िले के किसी भी शासकीय प्राथमिक-माध्यमिक शाला में पहुँच जाइए। वहाँ अध्यापक के नाम पर अधिकतर ऐसे चेहरे मिल जायेंगे, जो शैक्षिक अभियोग्यता के नाम पर शिक्षा-जगत् को कलंकित करते आ रहे हैं और वहीं पर ऐसे सुयोग्य अध्यापक भी हैं, जो मनसा-वाचा-कर्मणा शिक्षणशालाओं में अध्ययनरत विद्यार्थियों के भविष्य सँवारने में लगे हैं; परन्तु पतित व्यवस्था का एक अंग बनकर।

अध्यापक के नाम पर हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट कॉलेजों में पढ़ानेवालों में ऐसे लोग भी हैं, जो भरपूर वेतन पाते हैं, उसके बाद भी मानसिक स्तर पर दरिद्र बने रहते हैं और अपने मूल कार्य से विरत रहकर ‘कोचिंग संस्थानों’ में मुँह मारते रहते हैं और विद्यार्थियों को अपने कोचिंग संस्थानों में आने के लिए बहलाते, फुसलाते तथा धमकाते हैं। इतना ही नहीं, विद्यार्थियों के अध्ययन-स्तर चौपट करने के लिए गाइड के नाम पर ‘सड़कछाप’ प्रश्नोत्तरी लिखते हैं। वैसी मानसिकतावाले/वाली अध्यापक वही हैं, जो बोर्ड की परीक्षाओं के समय उत्तरपुस्तिकाओं का परीक्षण और मूल्यांकन करते समय अधिक-से-अधिक उत्तरपुस्तिकाओं का परीक्षण कर, रुपये बनाने के लिए भरपूर लापरवाही के साथ परीक्षक की कुभूमिका का निर्वहन करते हैं। इतना ही नहीं, प्रायोगिक परीक्षाओं में ले-देकर चलते बनते हैं।

विश्वविद्यालयों और संघटक महाविद्यालयों के एक सामान्य अध्यापक से लेकर प्रधानाचार्य और कुलपतियों तक में अधिकतर ऐसे लोग हैं, जिनके शर्मनाक आचरण से शिक्षा की गरिमा कलंकित होती जा रही है। स्वार्थ और परिचय-पहुँचवाद में आकण्ठ डूबे ऐसे लोग, जिस कार्य के लिए नियुक्त किये जाते हैं, उसके प्रति न्याय नहीं कर पाते; बल्कि अपने चेहरे पर कभी न मिटनेवाली कालिख़ जाने-अनजाने लगा लेते हैं।

दु:ख और शोचनीय विषय यह है कि देश में एक भी कुलपति ऐसा नहीं है, जिसने किसी अध्यापक को मूल कर्म ‘अध्यापन’ मेंं लापरवाही बरतने के लिए कभी दण्डित किया हो। क्या कारण है कि किसी विश्वविद्यालय और महाविद्यालय में क्रमश: नये कुलपति और प्रधानाचार्य के आते ही अध्यापकों और अध्यापकेतर कर्मचारियों के दो वर्ग बन जाते हैं :– पहला वर्ग कुलपति और प्रधानाचार्य का चहेता-चहेती बन जाता है और दूसरा वर्ग कुलपति-विरोधी। यहीं से विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के शेष रहे अनुशासन की उलटी गिनती शुरू हो जाती है। ऐसे में, कुलपतियों और प्रधानाचार्यों की एक आँख फूटी रह जाती है; वह ‘एकाक्षी’ रहकर व्यवस्था को देखता रहता है।

अधिकतर विश्वविद्यालय ऐसे हैं, जहाँ कुलपति और कुलसचिव में मुठभेड़ होती रहती है, ऐसा क्यों? अधिकतर कुलपति कुछ महाविद्यालयों के प्रधानाचार्यों की चमचागिरी से इतने प्रभावित रहते हैं कि उनकी सेवानिवृत्ति के समय के बाद भी सेवा जारी रखते हैं। इतना ही नहीं, यदि उनमें से किसी प्रधानाचार्य की ‘प्रधानाचार्य पत्नी’ भी सेवानिवृत्ति के बाद भी किसी कुलपति की कृपा पा जाती हो तो इसे क्या कहा जायेगा? बहुत सारी विसंगतियाँ हैं, जो कुलपति और प्रधानाचार्य के पतित आचरण की पटकथा लिखती हैं।

वर्ष में विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के अध्यापक कितने महीने अपनी-अपनी कक्षा में जाकर विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं? वर्ष में कितने माह ऐसे अध्यापक सम्मेलन-समारोहों-समितियों की शोभा बढ़ाकर विद्यार्थियों के अध्यापन-कार्य के समय में डाका डाल कर, अपनी जेबें भारी करते हैं ? अपनी अयोग्यताओं के बावुजूद चयन-समितियों के पदाधिकारी, सदस्य आदिक कैसे और क्यों बन जाते हैं? उन्हीं में से ऐसे भी हैं, जो कोचिंग-संस्थानों में स्नातक-स्नातकोत्तर तथा प्रतियोगितात्मक विद्यार्थियों पढ़ाते हैं। निजी महाविद्यालयों में परीक्षाओं की अवधि में ‘उड़न दस्ता’ के सदस्य बनने के लिए ऐसे अध्यापक सिफ़ारिशें कराते हैं और वहाँ पहुँचकर ‘मोटी रक़्म’ (रक़म/रकम अशुद्ध है।) पर हाथ साफ़कर नक़्ल को परवान चढ़ने देते हैं। इस तरह से शिक्षामन्दिर का बाज़ारीकरण करनेवाले ऐसे बाज़ारू अध्यापक वर्णनातीत घृणा के पात्र हैं।
बेशक, निष्ठावान अध्यापक के साथ यही चरितार्थ होता है— एक मरी मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है।

‘शिक्षक-दिवस’ के अवसर पर हमारा प्रश्न है– ऐसे अध्यापक जब नितान्त निन्दनीय और जघन्य कर्म करते हैं तब उनका अन्त:करण धिक्कारता नहीं?

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ५ सितम्बर, २०२० ईसवी।)