
आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(वैयाकरण एवं भाषाविज्ञानी), प्रयागराज।
हम जैसाकि जानते हैँ– तीर्थोँ का राजा प्रयाग कहलाता है, जिसके सहयोगी तीर्थ हैँ :– उज्जैन, हरिद्वार तथा नासिक, जहाँ कुम्भपर्व का आयोजन होता है।
अब प्रश्न है, वास्तव मे तीर्थ क्या है तथा उसके आधार और विस्तार को निर्धारित करने का मानदण्ड क्या होता है?
तीर्थ शब्द का अर्थ ‘मार्ग’ होता है। जब हम इस शब्द को विस्तृत रूप मे देखते हैँ तब ज्ञात होता है कि कार्य सिद्ध करने का उपाय, युक्ति अथवा साधन ‘तीर्थ’ कहलाता है। तीर्थ ‘तृ’ धातु का शब्द है, जिसका अर्थ ‘पार करना’ है। इस धातु मे जैसे ही ‘थक्’ प्रत्यय का योग होता है, ‘तीर्थ’ शब्द की व्युत्पत्ति हो जाती है। सामान्यत: जनमानस तीर्थ उसे समझता है, जिस स्थान पर अथवा उसके सन्निकट ऐसे नदी, जलाशय तथा आराधनास्थल हो, जिसके दर्शनमात्र से जनता-जनार्दन का पाप कट जाता हो और जो परलोक सुधारने मे सहायक सिद्ध होता हो। अत्यल्पसंख्यजन जानते होँगे कि हथेलियोँ और अँगुलियोँ के वे स्थान, जिन्हेँ कतिपय देवी-देवोँ का अवस्थान माना गया है, वे भी तीर्थ माने गये हैँ। इतना ही नहीँ, ‘दशनामी संन्यासियों का एक भेद और उनकी उपाधि को भी ‘तीर्थ’ की संज्ञा प्राप्त है। इस प्रकार हम पाते हैँ कि तीर्थ का वैराट्य कल्पना से परे है। “तारयति इति तीर्थ:”; अर्थात् जो तारता है, वही तीर्थ है, फिर जनमानस का तीर्थाटन करने के मूल मे यही कामना रहती है। यहीँ एक जिज्ञासा, कुतूहल वा उत्सुकता जन्म लेने लगती है– जो तारने की बात कही जा रही है, वह किसे वा किससे तारता है? इसका उत्तर है– जो पाप से तारता है, वह तीर्थ कहलाता है। यहीँ पर एक प्रतिप्रश्न उत्पन्न हो जाता है– वह पाप क्या है? तो हमे उत्तर प्राप्त होता है– दुर्बुद्धि से उत्पन्न विचार ‘पाप’ कहलाता है। यही कारण है कि जब पापबुद्धि किसी शक्तिपीठ मे पहुँचती है तब उसका मनपरिवर्तन होने लगता है।
सामान्यत: आज का बुद्धिवादी शिक्षित समुदाय अधिक-से अधिक इनको प्रथम कोटि मे रखकर सन्तुष्ट हो जाता है, जबकि पारम्परिक आस्थावान् तीर्थयात्री तीर्थों को केवल भौतिक स्मारक न मानकर, इनसे अपने ऐहिक और पारलौकिक कल्याण की भी कामना करता है। दृष्टिकोण मे भेद होने से दोनो प्रकार के व्यक्तियोँ की तीर्थसेवन-पद्धतियोँ मे भी अन्तर आ जाता है। श्रद्धालु तीर्थयात्री स्नान, दान, श्राद्ध, देवदर्शनादिक कृत्योँ को तीर्थ मे पूर्ण धार्मिक और आवश्यक करणीय मानता है, जबकि बुद्धिवादी इन कर्मकाण्डोँ को बाह्याडम्बर कहकर, नकार देना ही अपना वैशिष्ट्य समझता है।
यहाँ आस्थावान् तीर्थयात्री के दृष्टिकोण के पीछे शास्त्र-समेधित वैज्ञानिक तथ्य यह है कि प्रत्येक तीर्थ के स्थूल आधिभौतिक स्वरूप के अतिरिक्त आधिदैविक और आध्यात्मिक सूक्ष्म स्वरूपोँ की भी सत्ता है; अर्थात् समस्त तीर्थों के अधिदेवता नित्य हैँ तथा उनके आध्यात्मिक प्रतीक एवं प्रयोजन भी शाश्वत् सत्य और सार्वकालिक है। व्यक्त जगत् मे पृथ्वी के तत्त्वस्थलोँ मे भगवदिच्छा से भगवान् की भाँति तीर्थों का आविर्भाव, अवतार तथा तिरोभाव है, फिर भी किसी भगवद्वतार अर्चाविग्रह, यज्ञ, तपादिक के प्राकट्य के निमित्त से किसी कालविशेष और स्थलविशेष मे उनका व्यक्त होना, एक ऐतिहासिक भूमिका है।
तीर्थ प्रकट ही होते हैँ। भगवान् भगवदादिष्ट चेता, भक्तवृन्द अथवा तपस्वीजन की लीला, चरित्र तथा लोककल्याणमूलक कार्यपद्धति को व्यक्त करने-हेतु इस प्राकट्य- काल मे उनके आधिदैविक और आध्यात्मिक स्वरूप आधिभौतिक स्थूल भूखण्डात्मक स्वरूप से समीकृत होते हुए करते हैँ; किन्तु मर्यादा मानते हुए, अपने निमित्त के तिरोहित हो जाने पर भौतिकजन के लिए इनके ये दो स्वरूप अव्यक्त हो जाते हैँ; केवल तीसरा स्थूलस्वरूप प्रकट रहता है। कालक्रमानुसार इसमे भी अनेक परिवर्तन और विकार होते रहते हैँ। प्रवहमान तीर्थ-सरिताएँ अथवा ह्रदोँ के स्रोत शुष्क पड़ सकते हैँ अथवा स्थान-परिवर्तन कर सकते हैँ; वन-नगर बन सकते हैँ; सिद्ध-पाठ और दिव्य अमानुष अर्चा-विग्रह भी लुप्त हो सकते हैँ; सिद्ध पुरुषोँ के तपोमय स्थलोँ पर पाप जीवप्राणी आकर बस सकते हैँ अथवा चमत्कारपूर्ण दिव्य स्थल सामान्य नागरिक आवास बनकर, साधारण स्थानो-जैसे प्रतीत हो सकते हैँ। ये सभी सम्भावनाएँ तमोयुग कलि के प्रादुर्भाव के साथ ही घटित होने लगती हैँ। पुराणो के तीर्थ वर्ण और माहात्म्य तीर्थोँ के नित्य स्वरूप से ही सम्बद्ध होने के कारण साम्प्रतिक तीर्थस्थान पूरी तरह से उपयुक्त नहीँ होते, फलत: आधुनिक आलोचक और अन्वेषक इनको कोरी कल्पना अथवा अतिरंजित वर्णन कह देने से भी नहीँ हिचकते।
जहाँ सामान्य जीवोँ की अपेक्षा असाधारण योग्यता और प्रभाववाले महापुरुषोँ ने कोई आध्यात्मिक उपलब्धि अथवा लोकमंगल का कार्य सम्पन्न किया होता है और उस उपलब्धि अथवा कार्य का भावात्मक स्वरूप जाग्रत् होकर जहाँ के वातावरण को चेतना के समीप ला खड़ा करता है, 'तीर्थ' कहलाते हैँ।.प्रत्येक भाव, जो दैविजगत् की गतिविधियोँ से सम्बद्ध है, आकस्मिक नहीँ, अपितु नित्य है। प्रकृति के विविध भावस्तरोँ मे एक स्वतन्त्र अवस्थिति है। उसी प्रकार उस भाव का अधिष्ठाता एक चेतन भी है। मर्त्यधरा मे अधिकारि-विशेष को प्राप्त कर, वह उद्भूत होता है और जिस परिच्छन्न स्थल मे उसका प्रसार होता है, वह तद्भाव भावित तीर्थ कहलाता है। तद्भाव का अधिष्ठाता चेतन ही उस तीर्थ का अधिदेवता माना जाता है। इस भाव का सर्वभावाश्रय परमात्मा के साथ जो सम्बन्ध होता है, वही उस तीर्थविशेष का आध्यात्मिक स्वरूप है। इस प्रकार मूल भाव के त्रिविध स्तरों का प्रस्तार, जो साधारण जीवोँ के अन्य जागतिक मनोभावोँ को अपने मे एकीकृत कर लेने की शक्ति रखता है; पुण्यस्थल अथवा 'तीर्थ' बनकर विशेष माहात्म्य प्राप्त कर लेता है। स्थूल रूप मे भी इन भावोँ को विभिन्न पार्थिव पदार्थ पृथक्-पृथक् अथवा सम्मिलित रूप से वहन करते हुए देखे जाते हैँ, इसीलिए जलतीर्थ, स्थलतीर्थ, शैल तीर्थादिक तीर्थोँ के पृथक् अथवा परस्पर सम्मिश्रित अनेक भेद हो जाते हैँ। तीर्थोँ मे अनेक स्थल जाग्रत् पीठ माने जाते हैँ, जहाँ मन्त्रसिद्धि और उपासना-विशेष फल देनेवाली सिद्धि होती है।
सम्पर्क-सूत्र :–
‘सारस्वत सदन’
२३५/११०/२-बी, आलोपीबाग़, प्रयागराज– २११ ००६
9919023870
prithwinathpandey@gmail.com