तीर्थराजप्रयाग-महाकुम्भदर्शन– तीन

"माघ मकर गत रबि जब होई। तीरथ पतिहिं आव सब कोई।।"

संक्रान्ति का अर्थ है, ‘एक स्थान से दूजे स्थान मे पहुँचना वा एक-दूसरे का मिलना ‘संक्रान्ति’ कहलाती है। ‘संक्रान्ति’ की व्युत्पत्ति पर विचार करेँ तो ज्ञात होता है कि यह ‘क्रम’ धातु का शब्द है, जिसका अर्थ ‘गति करना’ है। इस धातु के पूर्व मे ‘सम्यक्/उत्तम/श्रेष्ठ रूप से’ के अर्थ मे ‘सम्’ उपसर्ग युक्त है। इस धातु मे ‘क्तिन्’ प्रत्यय के जुड़ते ही ‘संक्रान्ति’ शब्द की रचना होती है। यहाँ इसका अर्थ है, ‘कोई ऐसा बड़ा परिवर्तन, जिससे किसी वस्तु का स्वरूप बिलकुल बदल जाये। जैसे– मकरसंक्रान्ति। मकरसंक्रान्ति पर्व के मूल मे रवि अर्थात् ‘सूर्य’ की गति है।

ज्ञातव्य है कि सूर्य मास मे एक बार अपनी राशि को छोड़कर किसी अन्य राशि मे प्रवेश करता है। वह जैसे ही किसी अन्य राशि मे प्रवेश करता है वैसा ही वह उस राशि की संक्रान्ति कहलाने लगती है। यही कारण है कि मकरसंक्रान्ति को सूर्य के संक्रमणकाल का भी पर्व माना गया है।

गोस्वामी तुलसीदास की चौपाई पर ध्यान केन्द्रित करेँ– “माघ मकर गत रबि होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।।” इस चौपाई के अर्थ से ही सुस्पष्ट हो जाता है कि माघ-मास मे जब सूर्य मकर-राशि मे प्रवेश करता है तब सबलोग तीर्थराज प्रयाग मे आते हैँ, फिर ‘मकरसंक्रान्ति’ के आयोजन के साक्षी बनते हैँ।इसका आशय है कि सूर्य के राशि-परिवर्तन को ‘संक्रान्ति’ का नाम दिया गया है, जोकि मास मे एक बार होता है। पहले सूर्य धनुराशि पर होता है, फिर वह जैसे ही मकरराशि पर पहुँचता है वैसे ही सूर्य ‘दक्षिणायन’ से ‘उत्तरायण’ हो जाता है। देवताओँ के अयन को ‘उत्तरायण’ की संज्ञा दी गयी है, जोकि मंगल का प्रतीक होता है; मंगलकारी होता है, इसीलिए इसे ‘पुण्य-पर्व’ कहा गया है। अनुश्रुति है कि इससे शुभ कर्मों का समारम्भ होता है। यदि किसी की उत्तरायण मे मृत्यु होती है तो वह गमनागमन के बन्धन से मुक्त हो जाता है; अर्थात् उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। इतना ही नहीँ, जब तुलसीदास कहते हैँ :– देव दनुज किन्नर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनी।।” तो इससे ज्ञात होता है कि मकरसंक्रान्ति के अवसर पर देव, दैत्य, किन्नर तथा मानव-समूह– सब आदरसहित त्रिवेणी मे स्नान करते हैँ। इससे सुस्पष्ट हो जाता है कि मकरसंक्रान्ति की कितनी महत्ता है। यही कारण है कि मकरसंक्रान्ति का पर्व सूर्य को समर्पित होता है। सूर्य को आत्मबल और आत्मविश्वास का कारक माना गया है। इस अवसर पर सूर्य का दर्शन करके उन्हेँ अर्घ्य दिया जाता है। ऐसा विधान है कि ताँबे के लोटे मे रक्त (लाल) चन्दन, लाल पुष्प, तिल आदिक मिश्रित जल से पूर्वमुखी होकर तीन बार भगवान् भास्कर को जल दिया जाये, तत्पश्चात् अपने स्थान पर ही खड़े होकर सात बार सूर्य की परिक्रमा की जाये। उसके बाद सूर्याष्टक और गायत्रीमन्त्र का पाठ किया जाये।

इस अवसर पर वर्जना भी है। जैसे– मैथुन करना, भैँस का दूध दूहना, फ़सल और वृक्ष काटना, कठोर वाणी का व्यवहार करना निषिद्ध है।

‘महाभारत’ के वनपर्व के अध्याय ४३ मे मकरसंक्रान्ति के विषय मे उल्लेख है :–
“मकरे संक्रमणे पुण्ये यः सूर्यं पूजयेत्ततः।
तस्य पापं न विद्यते स्वर्गे मार्गः स च विज्ञेयः।”

अर्थात् जो मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य की आराधना करता है, उसे पापोँ से मुक्ति मिलती है और वह स्वर्ग का अधिकारी बनता है।

उपर्युक्त उपदेश श्रीकृष्ण-द्वारा अर्जुन को किया गया है, जिसमे उन्होँने मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य की पूजा की महत्ता बतायी है।

मकरसंक्रान्ति-आयोजन के मूल मे दो कथाएँ भी हैँ। पहली कथा शनि और सूर्यदेव के साथ जुड़ी हुई है। सूर्य की एक पत्नी का नाम छायादेवी है। सूर्यपुत्र शनि का जन्म छाया देवी से ही हुआ था। शनि का शरीर जन्म से ही कृष्णवर्ण का था। सूर्य के कृष्णवर्ण को देखते ही भगवान् भास्कर ने सुस्पष्ट कर दिया था कि शनि उनका पुत्र नहीँ है। इतना ही नहीँ, इस आरोप को मढ़ते हुए, सूर्य ने शनि को मातासहित घर से निष्कासित कर दिया था। शनि और छाया ‘कुम्भ’ घर मे रहते थे। जब माता छाया को ज्ञात हुआ कि उनके पति सूर्य ने माता-पुत्र के लिए अभद्र शब्द-व्यवहार किये थे तब छाया ने उस असह्य वाक्य के कारण कुपित होकर अपने पतिदेव सूर्य को शाप दे दिया था– आप कुष्ठरोग से ग्रस्त हो जाइए। उसके पश्चात् सूर्य के क्रोध का ठिकाना नहीँ रहा। उन्होँने शनिदेव और माता छाया का घर ‘कुम्भ’ को अपने तेज से जला डाला। कालान्तर मे, शनिदेव ने अपने पिता के कुष्ठरोग का उपचार कर दिया था; साथ ही उनसे यह भी कहा था कि वे माता छाया के साथ उचित व्यवहार करेँ। सूर्यदेव अपने पुत्र शनि के आचरण से प्रभावित होकर उनके घर पहुँचे; परन्तु वहाँ तो सूर्य के प्रकोप से जलाये गये घर की राख के ढेर ही मिला। शनि ने अपने पिता का अभिनन्दन काले तिल भेँट करके किया था। सूर्यदेव अपने पुत्र-द्वारा स्वागत-सत्कार देखकर अति प्रसन्न हुए थे। उन्होँने शनि को ‘मकर’ नामक दूसरा घर दिया था। यही कारण है कि ज्योतिर्विज्ञान के आधार पर शनिदेव को ‘मकर’ और ‘कुम्भ’ का स्वामी माना गया है। सूर्य ने वहाँ से लौटते समय कहा था :– मै प्रतिवर्ष इस घर (मकर) मे प्रवेश करूँगा, फिर यह घर धन-धान्य से परिपूर्ण हो जायेगा। यही कारण है कि जनसामान्य अपने घर को समृद्ध करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष मकरसंक्रान्ति का आयोजन करता है। पुत्र शनि-द्वारा पिता सूर्य को काला तिल देना, इस पर्व के मूल मे है; क्योँकि यहाँ काले तिल का वैशिष्ट्य रेखांकित होता है। तिल का शारीरिक स्वास्थ्य के साथ महत्त्वपूर्ण जुड़ाव है। हमे जानना चाहिए कि तिल के बीज प्रोटीन, विटामिन एवं एण्टी-ऑक्सीडेण्ट के समृद्ध स्रोत माने जाते हैँ। जो व्यक्ति उच्च रक्तचाप के रोग से ग्रस्त होता है, उसके लिए वे तिल के तेल का प्रयोग करते हैँ। इतना ही नहीँ, हृदयरोग, खाँसी, उच्च कोलेस्ट्राल, मधुमेह इत्यादिक रोगोँ के लिए इसका उपयोग किया जाता है। यह तो रहा तिल का वैज्ञानिक पक्ष; अब विचार करते हैँ, विज्ञान के अन्य क्षेत्र ज्योतिर्विज्ञान पर। ज्योतिषशास्त्र तिल को भाग्यसूचक मानता है। यही कारण है कि शरीर के कुछ भागोँ पर यदि तिल दिखता है तो उसे मंगलकारी और भाग्योदय का सूचक माना जाता है। अब प्रश्न है– शरीर का कौन-सा भाग मंगलकारी होता है? उत्तर है– ज्योतिषाचार्योँ का मत है कि यदि किसी महिला के शरीर के बायेँ भाग मे तिल होता है तब वह उसके लिए शुभकारी माना जाता है, जबकि वही तिल पुरुष के शरीर के दायेँ भाग मे होता है तो वह उसके लिए कल्याणकारी होता होता है। यही कारण है कि लोग तिल का सेवन करते हैँ।
अब दूसरी कथा को समझेँ–

यह कथा माँ गंगा और भागीरथ के साथ जुड़ी हुई है।

एक बार की बात है, राजा सगर ने अपने राज्य मे अश्वमेध यज्ञ किया था। यज्ञ मे छोड़े गये घोड़े की देख-रेख करने का दायित्व अंशुमान को सौँपा गया था। उस यज्ञ के प्रभाव से देवलोक का आसन डोलने लगा था; दूसरी ओर, पाताललोक मे कठोर तपस्या कर रहे कपिल मुनि के तेज से देवराज इन्द्र भयभीत हो चुका था। इन्द्र ने “एक पन्थ-दो काज” को सिद्ध करने के उद्देश्य से एक षड्यन्त्र रच डाला। उसने एक दैत्य का वेश धारण कर उस घोड़े को चुरा लिया। वह उस घोड़े को लेकर पाताललोक के उस पूर्वोत्तर-भाग मे गया, जहाँ कपिल मुनि तपस्या मे लीन थे। इन्द्र चुपके से उस घोड़े को मुनि के आश्रम मे बाँधकर चला गया।

उधर, घोड़े को न देखकर खलबली मच गयी। राजा सगर ने अपने साठ हज़ार पुत्रोँ से उस खोये हुए घोड़े का पता लगाने का आदेश किया था। उन्होँने पृथ्वीलोक को छान मारा; मगर घोड़ा कहीँ दिखा नहीँ, फिर उन्होँने पृथ्वी को खोदकर पाताललोक मे प्रवेश किया, जहाँ तपस्या मे रत एक मुनि के आश्रम मे वह घोड़ा बँधा दिखा था।

ऐसा देखकर, सागर के उन पुत्रोँ ने अपना धैर्य खो दिया था। वे सब चीख़ते हुए, अभद्र भाषा का व्यवहार कर, कपिल मुनि को आरोपित करने लगे। उस चीख़ से उनकी तपस्या भंग हो गयी। मुनि ने क्रोधावेग मे जैसे ही आँखेँ खोलीँ, राजा सगर के साठ हज़ार पुत्र भस्म हो गये।

कहा जाता है कि सगर के वंशज महाराजा दिलीप के पुत्र भगीरथ ने कपिल मुनि के क्रोध से भस्म हुए अपने पूर्वजोँ को तारने के लिए एक पैर पर खड़े रहकर माँ गंगा की कठोर तपस्या की थी, जिससे प्रसन्न होकर गंगा ने उनसे वर माँगने के लिए कहा था। भगीरथ ने उनसे मृत्युलोक मे अवतरित होने का वरदान माँगा था, फिर क्या था– उसी क्षण माँ गंगा का पूरे वेग के साथ धरती पर अवतरण हुआ था। गंगाधारा कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई गंगासागर पहुँची थी। इसप्रकार भगीरथ के साठ हज़ार पूर्वज तर गये। मकरसंक्रान्ति के दिन ही माँ गंगा स्वर्ग से धरती पर अवतरित हुई थीँ, जिनका संस्पर्श पाकर राजा सगर के समस्त पुत्रोँ को मुक्ति प्राप्त हुई थी। इससे मकरसंक्रान्ति मे गंगास्नान का महत्त्व बढ़ जाता है।

मकरसंक्रान्ति भारत-सहित नेपाल मे भी आयोजित किया जाता है। इसका आयोजन भारत के कई राज्योँ मे भिन्न-भिन्न नामो से किया जाता रहा है। इसे केरल-राज्य मे ‘मकर विलक्कु’ कहा जाता है। वहाँ के श्रद्धालुजन दिव्य मकर-ज्योति के दर्शनार्थ सबरीमाला मन्दिर मे जाते हैँ। तमिलनाडु मे इसे ‘पोंगल’ नामक उत्सव के रूप मे आयोजित किया जाता है। कर्नाटक मे ‘एलु-बिरोधु’, पंजाब-हरियाणा मे ‘माघी-लोहड़ी’, उत्तराखण्ड और गुजरात मे ‘उत्तरायण’ के नाम मे मनाया जाता है।

इसप्रकार भगवान् भास्कर से ज्ञान, ऊर्जा, ऊष्मा ग्रहण करने के उद्देश्य से ‘मकरसंक्रान्ति’ पर्व-विशेष की महत्ता शीर्ष पर दिखती है।

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