सत्य सभी को प्रिय है।
लेकिन जब असत्य व्यवहार को ही सत्य के रूप में अपनाया जाय तो प्रिय नहीं हो सकता।
प्रियता का जन्म ही सत्य से हुआ है।
किसी भी दूसरे को प्रिय मानना ही प्रेम है। यह प्रेम तो सत्य की ही उपज है।
समस्या यह है कि लोग सत्य को असत्य, और असत्य को सत्य जानते, मानते और जीते हैं।
दूसरे की प्रशंसा तो सदैव सत्य का व्यवहार है।
भले ही वह प्रशंसा झूठी हो।
लेकिन प्रशंसा करना तो सत्य का ही गुण है।
प्रेम के बिना कोई किसी की प्रशंसा कर नहीं सकता।
द्वेष से भरा हुआ मनुष्य कभी किसी का प्रशंसक नहीं होता।
प्रशंसा तो शिष्टाचार है।
आत्मा को प्रशंसा प्रिय है।
क्योंकि सभी में आत्मा मूलतः सर्वगुणसंपन्न है।
बस यह अपने गुणों को और अपनी महिमा को भूल गयी है।
पुनः याद दिलाने से खुश होती है आत्मा।
आत्मा मूलतः सत्य ही है।
वह जीवभाव को प्राप्त होकर अपने सर्वव्यापी स्वरूप को भूल गयी है।
प्रशंसा उसे पुनः सत्य की याद दिलाती है।
झूठी प्रशंसा को अलंकारिक प्रशंसा कहते हैं।
अतः सभी लोग खूब एक दूसरे की प्रशंसा किया करो।
इसमें कुछ भी हानि नहीं।
लाभ ही लाभ है।
एक दूसरे को ऊँचा उठाओ।
एक दूसरे को आगे बढ़ाओ।
एक दूसरे को अपना बनाओ।
एक दूसरे से संपर्क बढ़ाओ।
एक दूसरे से सम्बन्ध बनाओ।
एक दूसरे की गलतियों को क्षमा करो।
एक दूसरे को ज्ञानवान और गुणवान बनाओ।
एक दूसरे के हिताधिकारों की रक्षा करो।
एक दूसरे से रूठना छोडो।
एक दूसरे से नाता जोड़ो।।
इस संसार में दूसरा कोई नहीं है सब एक ही हैं, सब अपने ही हैं, यही सत्य है।
इस संसार में अपराधी और पशु भी तुम्हारा अपना ही सगा भाई है।
मूलतः हम सब एक ही माता-पिता की संतान हैं।
विश्वबंधुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् ही सत्य के उद्घोष हैं।
✍️???????? (राम गुप्ता, स्वतंत्र पत्रकार, नोएडा)