
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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देश मे सत्ताधारी राजनेताओं के प्रश्रय पाकर अपराधियों के हौसले बलन्द देखे जा रहे हैं। इसका जीता-जागता नमूना गुजरात का है, जहाँ कुछ गुण्डे बिलकिस बानो के परिवार के सात सदस्यों की हत्या कर देते हैं। उसके बाद गर्भवती बिलकिस बानो के साथ सामूहिक दुष्कर्म को अंजाम दे डालते हैं।
बिलकिस लम्बी क़ानूनी लड़ाई लड़ती है तथा दोषियों को उम्रक़ैद की सज़ा दिलवाती है; लेकिन गुजरात की सरकार क़ानून की अनदेखी करके अपराधियों को जेल से मुक्त करा देती है। बिलकिस बानो एक बार फिर इंसाफ़ की चौखट पर पहुँचकर गुहार लगाती है; पर उसकी आवाज़ नहीं सुनी जाती; पुन: गुहार लगाती है, फिर भी सफलता नहीं मिलती। वह हार नहीं मानती; अन्तत:, सफलता मिलती है।
हम हम इस पूरी घटना को सिलसिलेवार समझते हैं।
२७ मई, २००२ ई० को साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे मे कुछ अराजक तत्त्व आग लगा देते हैं और हिंसा भी करते हैं, जिसमे ५९ कारसेवकों की मौत हो जाती है। उस रक्तरंजित घटना के लिए गुजरात के स्थानीय मुसलमानो को ज़िम्मादार ठहराया गया था। उस अमानवीय घटना के बाद गुजरात मे भीषण रक्तपात हुआ था। हिन्दू-समुदाय के राष्ट्रीय स्वयंसेवक सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद्, भारतीय जनता पार्टी, बजरंग दल तथा अन्य हिन्दूवादी संघटन इतने हिंसक हो गये थे कि वे सब हँसिया, तलवार, लाठी-बन्दूक, पिस्टल आदिक घातक हथियारों से लैस होकर गुजरात की सड़कों पर निकल पड़े और चुन-चुनकर मुस्लिम-समुदाय के लोग की हत्या करने लगे; उनके घरों को जलाने लगे। उस समय भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और वहाँ के हुक़ूमत की बाग़डोर नरेन्द्र मोदी के हाथों मे थी।
उस भीषण रक्त-पात, तोड़-फोड़-आगज़नी के माहौल देखकर वहाँ के मुस्लिम-परिवार घर से भागकर खेत आदि मे छिपने लगे थे। बिलकिस बानो ने अपनी बच्ची तथा १५ अन्य लोग के साथ भागकर ३ मार्च, २००२ ई० को खेत मे शरण ली थी, तभी उधर आकर हिन्दूवादी दंगाइयों ने उन्हें घेरकर उनपर प्राणघातक प्रहार कर, बिलकिस बानो को छोड़कर शेष सबकी हत्या कर दी थी, फिर बाद मे गर्भवती बिलकिस के साथ उन दरिन्दों ने मिलकर शारीरिक दुष्कर्म किये थे। मारे गये लोग मे से सात सदस्य बिलकिस के परिवार के ही थे, जबकि छ: अन्य सदस्यों ने भागकर अपनी जान बचायी थी।
उस ख़ूनी घटना और सामूहिक बलात्कारकाण्ड से क्षुब्ध होकर उच्चतम न्यायालय की ओर से सी० बी० आइ०-जाँच के आदेश किये गये थे, जिसका परिणाम रहा कि वर्ष २००४ मे आरोपितों को गिरिफ़्तार कर लिया गया। स्थानीय थाना मे प्रकरण को दर्ज़ किया गया था; परन्तु पुलिस-प्रशासन की ओर से साक्ष्य के अभाव मे प्रकरण को समाप्त कर दिया गया था। उससे ज़ाहिर हो गया था कि पुलिस पर केस को रफ़ा-दफ़ा करने का राजनैतिक दबाव था। उसके बाद बिलकिस मानवाधिकार आयोग के कार्यालय मे पहुँची तथा उच्चतम न्यायालय मे याचिका प्रस्तुत की थी। उच्चतम न्यायालय ने पुलिस की ओर से निरस्त करनेवाली ‘क्लोज़र रिपोर्ट’ को ख़ारिज़ करते हुए, सी० बी० आइ० को नये सिरे से जाँच करने का आदेश किया था। सी० बी० आइ० की ओर से आरोपपत्र मे १८ लोग को दोषी पाया गया था, जिनमे ५ पुलिसकर्मीसहित २ चिकित्सक भी सम्मिलित थे। उनपर आरोपियों की मदद करने के लिए सुबूतों के साथ छेड़छाड़ करने का आरोप था।
२१ जनवरी, २००८ ई० को मुम्बई मे एक विशेष केन्द्रीय जाँच ब्यूरो (सी० बी० आइ०)-न्यायालय ने उक्त हत्या और बलात्कार के आरोप मे ११ आरोपितों (यहाँ ‘आरोपी’ अनुपयुक्त शब्द है।) को आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी थी। बॉम्बे उच्च न्यायालय ने भी उनकी सज़ा बरकरार रखी थी। उन्हें ‘भारतीय दण्ड संहिता’ के अन्तर्गत एक गर्भवती महिला के साथ बलात्कार करने की साज़िश रचने, हत्या करने तथा ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से इकट्ठा होने के आरोप मे दोषी ठहराया गया था।
उच्चतम न्यायालय की ओर से अप्रैल, २०१९ ई० मे गुजरात-सरकार को निर्देश किया गया था कि वह बिलकिस को ५० लाख रुपये की क्षतिपूर्ति, नौकरी तथा एक घर की व्यवस्था कराये।
ग्यारह आरोपितों मे से एक राधेश्याम शाह ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा ४३२ और ४३३ के अन्तर्गत आजीवन कारावास के दण्ड को क्षमा करने के लिए यह तर्क प्रस्तुत करते हुए, गुजरात उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था कि वह १ अप्रैल, २०२२ ई० तक बिना किसी छूट के १५ वर्ष ४ माह तक कारावास मे रहा। उच्च न्यायालय की ओर से यह तर्क प्रस्तुत करते हुए उस क्षमा-याचिका को निरस्त कर दिया गया था कि क्षमादान वा दण्ड मे कटौती के विषय मे निर्णय करनेवाली ‘उपयुक्त सरकार’ महाराष्ट्र है, न कि गुजरात। बॉम्बे उच्च न्यायालय ने अपने आदेश मे आरोपितों की दोषसिद्धि मे बिना कोई बदलाव किये प्रकरण मे सात लोग को मुक्त करने की याचिका भी निरस्त कर दिया था।
इतना सब होने के बाद भी गुजरात-सरकार ने न्यायालय के निर्णय और आदेश को भी अवैध तरीक़े से पलट दिया था। आजीवन कारावास के अपराधियों ने १५ वर्षों की सज़ा काट ली थी। उसके बाद उन अपराधियों मे से एक ने समय से पूर्व अपनी रिहाई के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था। पैनल के अध्यक्ष पंचमहल कलेक्टर सुजल मायात्रा ने कहा कि शीर्ष न्यायालय ने गुजरात-सरकार को उनकी सज़ा मे छूट के विषय पर ध्यान केन्द्रित करने का निर्देश किया था, जिसके बाद गुजरात-सरकार ने एक समिति गठित की थी। मायात्रा ने बताया था, “कुछ माह पहले गठित एक समिति ने दरिन्दगी करनेवाले सभी ११ दोषियों को जेल से मुक्त कराने के पक्ष मे सर्वसम्मति से निर्णय किया था। समिति की ओर से गुजरात-सरकार को सिफ़ारिश भेजी गयी थी और कल हमे उनकी रिहाई करने के आदेश मिले थे।”
उच्चतम न्यायालय की ओर से दिसम्बर, २०२२ ई० मे बिलकिस बानो की दोषियों की रिहाई के विरुद्ध पुनर्विचार-याचिका को निरस्त कर दिया गया था। बिलकिस ने माँग की थी कि १३ मई, २०२२ ई० के आदेश पर पुनर्विचार किया जाये। १३ मई, २०२२ के आदेश मे उच्चतम न्यायालय की ओर से कहा गया था कि सामूहिक बलात्कार के अपराधियों की रिहाई मे वर्ष १९९२ मे बनाये गये नियम ही लागू होंगे, जिसके आधार पर ११ दोषियों की रिहाई की गयी है।
दूसरी ओर, वादी बिलकिस बानो घोर अन्याय को देखते हुए, पुन: उच्चतम न्यायालय के शरण मे आयी। उसने ९ अगस्त, २०२३ ई० को बताया कि नियमो के तहत उन्हें दोषी ठहरानेवाले जज से राय लेनी होती है, जिसमे दोषी ठहरानेवाले महाराष्ट्र के जज-द्वारा कहा गया था कि अपराधियों को छूट नहीं दी जानी चाहिए।
२४ अगस्त, २०२३ ई० को उच्चतम न्यायालय की ओर से गुजरात-सरकार से पूछा गया था– दोषियों की रिहाई पर प्राधिकरण ने स्वतन्त्र विवेक का उपयोग कैसे किया? आख़िर प्राधिकरण कैसे रिहाई कराने की सहमति पर पहुँचा? उससे पूर्व १७ अगस्त, २०२३ ई० को न्यायालय ने गुजरात-सरकार से कठोरतापूर्वक प्रश्न किया था– रिहाई की इस नीति का लाभ सिर्फ़ बिलकिस बानो के अपराधियों को क्यों दिया गया? जेल क़ैदियों से भरी पड़ी है; बाक़ी दोषियों को ऐसे सुधार का मौक़ा क्यों नहीं दिया गया? न्यायालय की ओर से पूछे गये थे– नयी नीति के तहत कितने दोषियों की रिहाई करायी गयी है? बिलकिस के दोषियों के लिए ‘एडवाइज़री कमेटी’ किस आधार पर गठित की गयी थी? जब गोधरा-न्यायालय के न्यायालय मे मुक़द्दमा नहीं चला था तब वहाँ के जज से राय क्यों माँगी गयी थी?
सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय की ओर से कहा गया था कि हम ‘छूट की नीति’ पर सवाल नहीं उठा रहे हैं, बल्कि केवल बिलकिस के अपराधियों को दी गयी छूट पर आपत्ति व्यक्त कर रहे हैं।
उच्चतम न्यायालय की ओर से १२ अक्तूबर, २०२३ ई० को फ़ैसला सुरक्षित कर लिया गया था। समूचे प्रकरण की सुनवाई करते समय यह साफ़ हो गया था कि यदि सुनवाई कर रहे न्यायाधीश-द्वय सत्ता के दबाव मे नहीं आये तो अपराधियों की रिहाई की समाप्ति का निर्णय सुनाया जायेगा; हुआ भी वही। उच्चतम न्यायालय की न्यायाधीश बी० वी० नागरत्ना की अध्यक्षतावाली खण्डपीठ ने बिलकिस बानो-प्रकरण मे दोषियों की समय से पूर्व रिहाई के गुजरात-सरकार के निर्णय और आदेश को निरस्त करते हुए कहा– रिहाई के बारे मे फ़ैसला करने का अधिकार गुजरात-सरकार को नहीं, बल्कि महाराष्ट्र-सरकार को है। अपराध भले ही गुजरात मे किया गया हो फिर भी महाराष्ट्र मे ‘ट्रायल’ चलने के कारण फ़ैसला करने का अधिकार गुजरात-सरकार के पास नहीं है।
अन्तत:, बिलकिस बानो का संघर्ष रंग लाया और ८ जनवरी, २०२४ ई० को उच्चतम न्यायालय की ओर से गुजरात-सरकार के निर्णय को पलटते हुए, दो सप्ताह के भीतर दोषियों को फिर से जेल भेजने का आदेश जारी किया गया था।
दूसरी ओर, आदेश आते ही ११ मे से ९ अपराधी घर छोड़कर पलायन कर गये हैं। उनके घरों के दरवाज़ों मे ताले लगे हुए हैं। भागे हुए अपराधी गुजरात के रंधिकपुर और सिंगवाड गाँवों मे रहते हैं। उनके नाते-रिश्तेदार और अड़ोसी-पड़ोसी कुछ भी बताने से कतरा रहे हैं।
अब देखना है, उच्चतम न्यायालय की ओर से निर्धारित अवधि (दो सप्ताह के भीतर) मे निर्णय और आदेश का पालन कराया जाता है वा नहीं?
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १२ जनवरी, २०२४ ईसवी।)