अटल जी! क्या बोलते थे

बात 1994-95 की है। तब मैं कानपुर में रहकर बीएनडी कॉलेज से बीएससी की पढ़ाई कर रहा था। एक रोज मुझे किसी से सुनने में मिला कि श्रद्धेय अटल जी का भाषण किदवई नगर चौराहे पर होने वाला है। हालांकि मुझे कॉलेज जाने में विलंब हो रहा था लेकिन फिर भी मैं अटल जी को सुनने का लोभ संवरण न कर सका।

अटल जी क्या बोलते थे!
सम्मोहन था उनकी वाणी में!! उनका वह लंबे -लंबे विराम,अंतराल लेकर बोलना। हाथ की विभिन्न भंगिमाओं से भावों को प्रकट करना। विरोधियों का नाम लिए बिना उन पर नफासत से वार करना। जनता से सीधा संवाद करना, श्रोताओं से डायरेक्ट कनेक्ट करने का दुर्लभ कौशल था उनमें। सब कुछ कितना अद्भुत, कितना अविस्मरणीय था। उस दिन से मैं उनकी वक्तृत्व कला का कायल हो गया था।

अटल जी कवि भी थे। शब्द और वाणी के महत्व को भलीभांति समझते थे।उनका लंबे विराम लेकर बोलना इस बात का प्रतीक था कि बोलने से पहले वह शब्दों को मन में कई बार तोलते थे। फिर सबसे वजन और उपयुक्त शब्द बाहर निकालते थे। अपनी वाणी पर इसी नियंत्रण के कारण वह अपने व्यक्तिगत जीवन में और राजनीति के दलदल में रहकर भी ताउम्र अजातशत्रु बने रहे।

अमेरिका सहित संपूर्ण विश्व को गच्चा देकर पोखरण परमाणु विस्फ़ोट करना, स्वर्ण चतुर्भुज योजना ,पहली गैर कांग्रेसी सरकार को पूरे पांच वर्ष चलाना, UNO में उनका हिंदी में दिया भाषण , हिन्दू तन मन’ जैसी कालजयी कविता का सृजन, विदेश मंत्री के रूप में उनका कार्यकाल , लगभग पारदर्शी प्रशासन आदि उनकी प्रमुख उपलब्धियां थी। एक वोट खरीदने के बजाय सरकार कुर्बान कर देने तथा जोड़तोड़ की सरकार को ‘चिमटे से न छूने’ की बात कहने का साहस उन जैसे विरले व्यक्तित्व में ही था।

हालांकि कंधार विमान कांड, कारगिल युद्ध, संसद पर हमला, केवल सरकारी कर्मचारियों की पुरानी पेंशन खत्म करना, जातिगत आरक्षण में न्यूनतम अंको की बाध्यता समाप्त करना, प्रमोशन में भी आरक्षण घुसा देना; माया, ममता, जयललिता के दबाव में कई बार झुक जाना उनकी सरकार की विफलताएं थी।

सबसे अधिक बुरा मुझे तब लगा जब सेक्युलरिज्म का प्रभावी और दीर्घकालिक उपचार करने वाले तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री की खुले आम मंच से आलोचना करके उन्होंने अपनी कालजयी पंक्तियों “तन मन हिंदू” को महज कोरी कविता साबित कर दिया।

इन सब दुर्बलताओं के बावजूद अटल जी जैसे विराट व्यक्तित्व वाला करिश्माई जन नेता भारतीय राजनीति में विरले ही हैं। उनके जाने से शुचिता पूर्ण भारतीय राजनीति के एक युग का अवसान हो गया है।

(आशा विनय सिंह बैस)