एक स्वछन्द अभिव्यक्ति

★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

एक–
बनता-मिटता चित्र यहाँ, जीवन बन अभिशाप।
मीठे फल सब चख रहे, बनकर के निष्पाप।।
दो–
भाँति-भाँति-जन हैं यहाँ, चतुर-चोर-चालाक।
वाणी कोयल कूकती, दिखते मन से काक।।
तीन–
मन से दिखते दीन हैं, तन से सुन्दर अंग।
चीर हरण हैं कर रहे, गिरगिट-जैसे रंग।।
चार–
भाँप-भाँप कर पाँव रख, दिखता भीतरघात।
नीचे-नीचे छल-कपट, ऊपर-ऊपर बात।।
पाँच–
दिखते सब यमराज हैं, बोल धर्म के बोल।
सत्ता-लोलुप दिख रहे, चड्ढी सबकी गोल।।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २९ जनवरी, २०२२ ईसवी।)