ग़ुलामो की बस्ती

★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

यहाँ ग़ुलामो की बस्ती है
मारो ठोकर
धराशायी कर दो नीवँ को।
चाटुकार चमचों की गरदन
लम्बी होती जा रही;
उठाओ कील और टाँग दो खूँटी पे।
ये इन्सानियत की भाषा
समझकर भी नहीं समझते
इनकी ज़बाँ खोलो
और टाँक दो वे सभी शब्द,
जिनके वे आदी हो चुके हैं।
यह नमकहरामो की बस्ती है
आँगन से द्वार तक
बो दो अफ़ीम के बीज।
ये ज़मी पे क़दम नहीं रखते,
आसमाँ मे उड़ा हैं करते
अपने शब्दों की कैंची से
कतर डालो, एक-एक पर।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २९ जनवरी, २०२२ ईसवी।)