भोजपुरी बोली के रस पीहीं सभे बुझाइल कि ना हो?

★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

अझुराहि, गेंगाहि, नखराहि, बुदबुदाहि, फेकराहि, झोकराहि, बकलोल आ तिरछोल मेहरारू केहू के भेंटाइ गइल त जिनगी के ताक् धिना धिन सुरू हो गइल। एहुसे घेलुओ में केहू ओइसन मेहराऊ थमावे, त दूरे से हथवा जोरि लेबे के चाहीं; आ केहू गरदनिया में बान्हें लागे त मउका देखि के ओइसहीं भाग जाये कि चाहीं, जइसे खूँटा तुराइके बछवा पराइ चले लँ स। अइसन मेहररुअन से पचीस कोसा फरके रहला में तन्दुरुसती बनल रही आ चेहरवा पर ‘सनलाइट’ सबुनिया ‘फोकस’ मारत रही। बाकिर बाबू! अब सुद्ध घियवा ठेकत त बा ना; एही से चेहरवा बुताहि-बुताहि लउके लागल।

बरहम बाबा के पजरा जइह मत, ना त तहार जतरा नीमन बनाइ दिहें। मेहररुआ बाड़ा धिकल-धिकल लागे ली स, जइसे गरम तववा से धिकाइल-धिकाइल रोटिया निकले ले; तनिको गचकी खइल कि जिनगीभर सवादि ना ठेकी।

एही से भभकियाह मेहररुअन से दस हाथ फरके रहे के चाहीं, आ जइसे पजरा गइल कि तहार ककन छोड़ावे लगहीं स आ सभाखन अलगे से।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २५ मार्च, २०२१ ईसवी।)