धर्मवीर भारती जी बहुत याद आते हैं

धर्मवीर भारती की मृत्युतिथि (४ सितम्बर) पर विशेष

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय (भाषाविद्-समीक्षक)-

भाषाविद्-समीक्षक डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

समूचे देश में इलाहाबाद, अब प्रयागराज ही ऐसा सारस्वत केन्द्र रहा है, जहाँ एक-से-बढ़कर-एक भाषाकार, साहित्यकार, पत्रकार, समीक्षक आदिक गढ़े, तराशे तथा संस्कारित किये जाते रहे हैं। उनमें से ऐसे हस्ताक्षर भी रहे हैं, जिनकी देश-देशान्तर में प्रतिष्ठा रही है। उन्हीं में से एक थे, धर्मवीर भारती। 25 दिसम्बर, 1926 ई० को इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले में जन्मे धर्मवीर भारती ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी-साहित्य में स्नातकोत्तर की शिक्षा अर्जित करने के पश्चात् ‘डॉक्टरेट’ की उपाधि अर्जित की थी। उन दिनों इलाहाबाद में दो ही संस्थाएँ थीं, ‘परिचय’ और ‘परिमल’। परिमल अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय थी। उस खेमे के वैचारिक अखाड़े में डण्ड पेलने वाले अपने प्रतिपक्षी को चित करने की तरक़ीब खोजा करते थे। उन्हीं पहलवानों में से एक भारती जी भी होते थे। जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र थे तब विचार और साहित्य-स्तर पर अपनी सक्रियता का अनुभव कराते रहते थे। उन दिनों प्रख्यात पत्रकार-साहित्यकार राजेश्वर प्रसाद सिंह कटरा-स्थित अपने निवासस्थान पर ही ‘सन्ध्या’ नामक वैचारिक संस्था का संचालन करते थे, जिसमें भारती जी की सक्रिय भूमिका रहती थी। उसी संस्था में ही रहकर उन्होंने अपनी साहित्यिक समझ विकसित की थी। आगे चलकर, वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी-विभाग के संस्थापक और प्रथम विभागाध्यक्ष प्रो० धीरेन्द्र वर्मा के सान्निध्य में रहकर विद्यार्थियों को ‘नाटक’ विषय पढ़ाने लगे थे। उनकी अध्यापन-शैली इतनी सुरुचिपूर्ण थी कि वे एक कुशल अध्यापक के रूप में मान्य हो गये थे।

उल्लेखनीय है कि भारती जी ने अपना सर्वाधिक चर्चित उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ इलाहाबाद में ही लिखा था। ‘ठण्डा लोहा’ और ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ इलाहाबाद की ही देन है। उनके जीवन में एक ऐसी घटना घटी, जिससे आहत होकर उन्होंने इलाहाबाद को ‘अलविदा’ कह दिया था। वे ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया प्रकाशन-समूह’ से सम्बद्ध हो गये; अन्तत: तत्कालीन पाठकप्रिय पत्रिका ‘धर्मयुग’ के सम्पादक के रूप में भारती जी ने अपनी प्रयोगधर्मी पत्रकारिता का आरम्भ किया था। वास्तव में, भारती जी की कवि, नाटककार, निबन्धकार, समीक्षक तथा सम्पादक के रूप में पहचान हो चुकी थी। जब पहली बार मेरी उनसे भेंट हुई थी तब उन्होंने संवाद के समय ही एक विषय के सन्दर्भ में कहा था, “देखो पृथ्वी! पहचान खोकर डरा हुआ आदमी, चूँकि अर्द्ध मनुष्य या मानुष होता है, अत: वह सबसे ज़्यादा क्रूर और हिंसक होता है।” उनके ये शब्द मुझे आज भी उनकी जीवन्तता का अनुभव करा रहे हैं।