मिथ्या वचनबद्धता, जो चुभती है

शुभेच्छु 'अरिन्दम घोष जी' ने मेरा नाम सुझाया और वे आ पहुँचे

अकस्मात् फ़ोन की घण्टी बजी। मैने पूछा, “आप कौन हैँ?”
परिचय प्राप्त हुआ, फिर उनका स्वर उभरा,”आपका दर्शन करना चाहता हूँ।”

मेरा उत्तर था, “दर्शन तो देवी-देवता का किया जाता है; मै तो एक सामान्य मनुष्य हूँ। अच्छा बताइए, किस संदर्भ मे मिलना चाहते हैँ?”

उन्होंने अपने ‘हेतु’ (प्रयोजन) से अवगत कराया, फिर
स्थान, दिनांक और समय निर्धारित हुए।

वे अपने पुत्र के साथ आ पहुँचे। उन्होँने बताया कि अरिन्दम घोष जी (इण्डियन प्रेस, प्रयागराज के स्वामी) ने आपका ही नाम सुझाते हुए, आपका ‘नम्बर’ दिया था।

उन्होँने बताया, “सी० बी० एस० ई० की कक्षा नौ और दस के विद्यार्थियों के लिए आपसे हिन्दी-व्याकरण की पुस्तक चाहता हूँ।”

वे अपने साथ अन्य प्रकाशनो की पुस्तकेँ भी ले आये थे। मैने उन पुस्तकोँ के सभी अध्यायोँ पर दृष्टिपात करने के अनन्तर कहा,”इनमे जिस तरह से कई शब्दोँ की वर्तनी अशुद्ध रूप मे दिख रही हैँ, मेरे द्वारा लिखित सामग्री मे उनका प्रयोग नहीँ होगा।”

देश के उस प्रतिष्ठित प्रकाशक ‘राजीव प्रकाशन’, प्रयागराज के स्वामी राजीव भार्गव का उत्तर था, “एन० सी० ई० आर० टी०’ ने इन अशुद्ध शब्दोँ को ही ‘शुद्ध’ माना है।”

मेरा उत्तर था, “मै विद्यार्थियोँ को अशुद्ध शब्दज्ञान नहीँ कराऊँगा। मै आपके लिए हिन्दी-व्याकरण नहीँ लिखूँगा।”
उनका उत्तर था, “मै बहुत आशा के साथ आपके पास आया हूँ; आपही कोई ‘बीच का रास्ता’ बताइए।”

मैने कहा, “एन० सी० ई० आर० टी० की ओर से जिन अशुद्ध शब्दोँ को ‘शुद्ध’ माना गया है, मै उन्हेँ शुद्ध लिखते हुए, उनके द्वारा अशुद्ध शब्दोँ को शुद्ध रूप मे मान्यताप्राप्त शब्दोँ को अपनी ‘पाद-टिप्पणी’ के अन्तर्गत व्याकरण-स्तर पर ‘अशुद्ध’ ठहराऊँगा; क्योँकि उस प्रशिक्षण-संस्थान की ओर से जिस तरह से निस्संकोच अशुद्ध वर्तनी को मान्य किया जा रहा है, उनसे उच्चशिक्षा प्राप्त कर रहे विद्यार्थियोँ और प्रतियोगी विद्यार्थियोँ का अहित हो रहा है।”

प्रकाशक महोदय ने मेरा मत विनयशीलता के साथ स्वीकार कर लिया था।

लगभग ५०० पृष्ठोँ की व्याकरणात्मक कृति प्रणयन करने पर सहमति हो चुकी थी। मैने सुस्पष्ट शब्दोँ मे बता दिया था, “प्रतिपृष्ठ ₹५०० मानदेय लूँगा; प्रूफ़-पठन का अलग से रहेगा। लेखन करने के लिए काग़ज़-क़लम आप उपलब्ध करायेँगे; पच्चीस लेखकीय प्रतियाँ लूँगा तथा आपको छ: माह के भीतर पाण्डुलिपि प्राप्त हो जायेगी, जो कि अध्यायश: कई खण्डोँ मे क्रमश: उपलब्ध करायी जायेगी। लेखन करने से पूर्व कुल मानदेयराशि का पच्चीस प्रतिशत अग्रिम धनराशि के रूप मे लूँगा।

प्रकाशक महोदय सहमत हो गये थे।

अन्य विषयोँ के पाठ्यक्रम पर आधारित पाण्डुलिपि तैयार करने पर भी वार्त्ता हुई थी; परन्तु प्रथमत: ‘हिन्दी-व्याकरण’ का लेखन करना था।

निश्चित रूप से कुछ ऐसी सामग्री ‘अध्याय’ के रूप मे उस पुस्तक मे सम्मिलित करता, जो अन्यत्र दुष्प्राप्य हैँ।

खेद है! उपर्युक्त प्रकाशक महोदय विश्वसनीय नहीँ निकले; आये ही नहीँ। मैने समझ लिया था कि उन्हेँ अशुद्ध लेखनयुक्त पाण्डुलिपि चाहिए थी, जो मुझे किसी मूल्य पर स्वीकार नहीँ था।

‘राजीव प्रकाशन’, प्रयागराज के प्रकाशक राजीव भार्गव आज ही के दिनांक मे दो वर्ष पूर्व मेरे निवास-स्थान पर आये थे।

(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १९ अप्रैल, २०२५ ईसवी।)