अनन्यतम तीर्थराज प्रयाग की जय हो!

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

‘प्रयाग’ शब्द की निष्पत्ति ‘यज्’ धातु से होती है; ‘प्र’ उपसर्ग प्रकृष्ट, श्रेष्ठ, उत्कृष्ट का बोधक है, जबकि ‘याग’ शब्द ‘यज्ञवाची’ है।

अनुपम तीर्थस्थान प्रयाग के पक्ष में हमारे सनातन पौराणिक ग्रन्थ आ खड़े होते हैं। ‘ब्रह्मपुराण’ के अनुसार– प्रयाग-क्षेत्र में प्रकृष्ट यज्ञकर्म सम्पादित हुए हैं, इसलिए उसे ‘प्रयाग’ की संज्ञा प्राप्त है।

‘मत्स्यपुराण’ प्रयाग का विस्तार बताता है, जिसके समर्थन में ‘पद्मपुराण’, ‘अग्निपुराण’ तथा ‘महाभारत’ आ खड़े होते हैं।

महाभारत के ‘आदिपर्व’ में प्रयाग को सोम, वरुण तथा प्रजापति का जन्मस्थान कहा गया है, जबकि ‘वनपर्व’ में प्रयाग को समस्त तीर्थों, देवों तथा ऋषि-मुनियों का निवास बताया गया है।

‘अनुशासनपर्व’ की मान्यता है कि माघमास में तीन कोटि दस सहस्र तीर्थ प्रयाग में एकत्र होते हैं।

अब चलते हैं, बाबा तुलसी की कुटिया में। बाबा प्रयाग के माहात्म्य को इस रूप में रेखांकित करते हैं :—
”माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथ पतिहि आव सब कोई।।
देव दनुज किन्नर नर श्रेनी। सादर मज्जहि सकल त्रिबेनी।।
पूजहिं माधव पद जलजाता।
परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥

वहीं निम्नांकित श्लोकों के माध्यम से एक महत्तम प्रयाग का अनन्य अभिज्ञान कराया गया है :——
”तीर्थावली यस्य तु कण्ठभागे। दानावली वल्गति पाद मूले।
व्रतावली दक्षिण बाहु मूले। स तीर्थराजो जयति प्रयागः।।”

प्रयाग-अस्तित्व और उसकी व्याप्ति का यह प्रमाण विलक्षण, अकाट्य तथा जीवन्त है, क्योंकि :—-
”श्रुतिः प्रमाणं स्मृतयः प्रमाणम्। पुराणमप्यन्न परं प्रमाणम्।।
यत्रास्ति गङ्गा यमुना प्रमाणम्। स तीर्थराजो जयति प्रयागः।।”

(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १४ जनवरी, २०२० ईसवी)