अराजक चरित्र को जीते आ रहे हिन्दी-समाचार चैनल– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

★हिन्दी-पत्रकारिता दिवस (३० मई) पर राष्ट्रीय परिसंवाद-आयोजन

“आज हिन्दी-समाचार चैनलों की कार्यपद्धति विश्वसनीय नहीं दिख रही है। स्थिति यह है कि सभी चैनलों के सूत्रधार (एंकर) जिस प्रकार की भूमिका में दिख रहे हैं, वह राष्ट्र की शान्ति और विधि-व्यवस्था के लिए नितान्त घातक सिद्ध हो रहा है। यह भी प्रमाणित हो चुका है कि हिन्दी समाचार चैनल अराजक चरित्र को जीते आ रहे हैं। इसे हम हाल ही के चुनाव की अवधि में देख-समझ चुके हैं। विषय और कथन को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करना और एक ही विषय को अपने मनोनुकूल प्रस्तुत करना चैनलों की ‘निजी’ विशेषता बन चुकी हैं। आज देश में एक भी हिन्दी- समाचार चैनल नहीं है, जिसका अपना कोई पत्रकारीय मूल्य हो। टी०आर०पी० (टेलीह्विज़न रेटिंग पॉइण्ट) की होड़ में सभी लगे हुए हैं। समाज को सकारात्मक दिशा देने के प्रति किसी को चिन्ता नहीं है।”

उक्त विचार भाषाविद् और मीडियाअध्ययन-विशेषज्ञ तथा समारोह के मुख्य अतिथि आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने हिन्दी-पत्रकारिता-दिवस पर ‘हिन्दी-समाचार चैनलों का वर्तमान’ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय परिसंवाद में व्यक्त किया था। यह आयोजन प्रयागराज में बौद्धिक,शैक्षिक, सांस्कृतिक तथा साहित्यिक मंच ‘सर्जनपीठ’ की ओर से ३० मई को किया गया था।

आरम्भ में डॉ० वेदिका त्रिपाठी ने वेदपाठ किया था। विशिष्ट अतिथि के रूप में चण्डीगढ़ में पत्रकारिता और जनसंचार की सहायक प्राध्यापक डॉ० सोमलता ने कहा,” वास्तव में, आज पत्रकारिता की शिक्षा-दीक्षा सन्दिग्ध दिख रही है। समाचार चैनलों में ऐसी व्यवस्था बना दी गयी है, जिसमें मीडियाकर्मी मात्र औपचारिकताओं का निर्वहन कर रह जाते हैं। उसमें सुधार की आवश्यकता है। समाचार चैनलों में भाषा, कथ्य, छायांकन आदिक का चयन उत्तेजित करनेवाला और अपरिपक्वता का बोध करानेवाला रहता है।”

सीधी के डॉ० रमानाथ कश्यप ने सारस्वत अतिथि के रूप में विचार व्यक्त किये,”बुराई कहाँ नहीं है, हमें अच्छाइयों पर ध्यान देते हुए, समाचार चैनलों की कमियों को भी उजागर करना चाहिए।”

सहारनपुर से डॉ० मिलिन्द गोस्वामी ने बताया,”अब समाचार चैनलों में दृश्य और कथ्यसामग्री का अभाव दिखने लगा है; क्योंकि लगभग सारे चैनल बाज़ार से प्रभावित होकर अपनी गतिविधियों का संचालन करते हैं।”

जोधपुर की शोधविद्यार्थी कु० मीनाक्षी देवी ने समाचार चैनलों के क्षेत्र में समुचित शोध-दिग्दर्शन को अपर्याप्त बताते हुए कहा,”हम उपयुक्त शोध-निर्देशकों के अभाव में शोध नहीं कर पा रहे हैं; क्योंकि हमारी जिज्ञासाओं का शमन नहीं हो पाता। इस कारण समस्याएँ वहीं-की-वहीं धरी रह जाती हैं।”