
दारू बैसवारा में बड़ी बदनाम रही है!!
हमारे यहां चाहे किसी व्यक्ति में दसियों गुण हों, लेकिन अगर वह दारू पीता हो तो सारे गुण गोबर हो जाएंगे। उसे सिरे से यह कहकर खारिज कर दिया जाएगा कि – अरे वह तो पूरा पियक्कड़ है! किसी भले आदमी की बात करो।”
मतलब यह कि दारू ‘इन’ मतलब भला आदमी ‘आउट’। गोया कि दारू और शराफत वह दो तलवारें हों जो एक म्यान में रह ही नहीं सकती।
गंभीरता से सोचें तो दारू के बारे में यह धारणा निराधार भी नहीं है। मैं खुद अपने आसपास, नात- रिश्तेदारों में कई ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जिन्होंने दारू पीकर अपना स्वास्थ्य, संपत्ति, संस्कार सब नष्ट कर लिए। महिलाओं के जेवर यहां तक कि घर के बर्तन- भांडे तक बेच डाले। शराब पीकर अपनी पत्नी , बच्चों को पीटने वाले पुरूष भी आपको आसपास मिल ही जायेंगे। अंगूर की बेटी की चाहत में अपने घर की बहन -बेटियों को दांव पर लगा देने वाले भी इसी संसार में मिल जाएंगे।
इन्हीं सब कारणों से दारू और दारू पीने वालों से दूरी बनाए रखने की घुट्टी हमें बचपन से पिलाई गई थी। थोड़ा बड़े हुए तो खुद ही समझ आ गया कि ‘दारू ही दोज़ख का द्वार’ है। फिर तो मैं खुद ही ऐसे लोगों को बिल्कुल भी भाव नहीं देता था।
मैं जब एयर फोर्स में गया तो दारु पीने वालों के प्रति मेरे मन में बड़ी कटु भावना थी । ट्रेनिंग सेंटर में ट्रेनीज के लिए ‘बार’ नहीं होता, कैंटीन से भी दारू नहीं मिलती है। वहां दारू पीना बिल्कुल भी अलाउड नहीं है। हालांकि हमारे कुछ साथी चोरी छुपे धोबी, नाई, सब्जी वाले को कुछ एक्स्ट्रा पैसा देकर बाहर से पौवा-अद्धा मंगा लेते थे और छुट्टी के दिन चुपके से किसी कोने में पीते भी थे। मैं ऐसे साथियों के बारे में कोई अच्छा विचार नहीं रखता था। अपने मन मे सोचता कि-” बताओ इनके घर वालों ने यहां इन्हें देश सेवा करने , चार पैसे कमाने के लिए भेजा है और यह लोग अय्याशी में पैसा उड़ा रहे हैं, दारू के ग्लास में अपने माँ-बाप का नाम डुबो रहे हैं ।
जब मेरी पहली पोस्टिंग बीदर हुई तो परिवर्तन यह हुआ कि ‘पी स्टाफ’ बनने के बाद दारू पीना ऑफीशियली अलाउड था। हमारे मेस के पास ही सुसज्जित बार था, जिसमें जाकर कोई भी दो पैग दारू या एक बोतल बियर पी सकता था। लेकिन कहते हैं न कि ‘ओल्ड हैबिट्स डाई हार्ड’ यानि पुराने संस्कार जल्दी नहीं जाते। इसलिए ऑफिशयली परमिशन होने के बाद भी दारु और उसे पीने वालों के प्रति मेरा दृष्टिकोण तब भी नहीं बदला। मैं उस समय तक यही मानता था कि जो दारू पीते हैं वह दानव प्रकृति के होते हैं, शराब पीने वाला निश्चित ही सत्यानाशी होता है । इसलिए मैं ऐसे लोगों से पर्याप्त दूरी बनाकर रखता था ।
मैं बीदर के ग्राउंड फ्लोर-13 में रहता था। उस बिलेट में हमारे एक सीनियर नायर सर भी रहा करते थे। वह अकाउंट सेक्शन में कार्य करते थे यानि हमारी पेमेंट, अलाउंस आदि बनाते थे। नायर सर से याद आया कि एक समय एयरफोर्स में मलयालियों की विशेष कर नायरों की संख्या इतनी अधिक थी कि लोग मजाक में ‘इंडियन एयर फोर्स’ को ‘नायर एयरफोर्स’ भी कहने लगे थे।
खैर , बात नायर सर की हो रही थी। वह डार्क कॉम्पलेक्सन वाले, थोड़े हेल्थी, मंझोले कद के व्यक्ति थे। उनके बाल बिल्कुल काले और कुछ घुंघराले थे। क्लर्क पीए ट्रेड था उनका। बिलेट में उनका सीनियर होने के नाते सम्मान था तो सेक्शन में कुशल कर्मचारी होने के कारण उनकी इज्जत थी। मलयाली और अंग्रेजी धाराप्रवाह बोलते थे, हिंदी भी ठीक ठाक बोल लेते थे। एक बिलेट में रहते हुए भी मेरी उनसे बस हेलो-हाय वाली जानपहचान थी। इसलिए नहीं कि वह मलयाली या नॉन-टेक ट्रेड के थे बल्कि इसलिए क्योंकि वह लगभग डेली वाले ड्रिंकर थे। और ड्रिंकर के बारे में मेरे क्या विचार थे, यह तो मैं बता ही चुका हूं।
नायर सर शाम होते ही नहा धोकर बिल्कुल टाइम से बार पहुंच जाते थे। सुनते हैं कि वह हमेशा अर्ली बर्ड्स में होते थे, कई बार तो ‘बार’ का फीता भी वही काटते थे। किसी रोज ऑफिस के कार्य से या बाहर शिवनगर जाने के कारण लेट हो जाते तो अपना खाना (डिनर) और पीना (लिकर) किसी साथी से कहकर या मेस बॉय को कुछ अतिरिक्त पैसे देकर बिलेट में ही मंगवा लेते थे। यही उनकी जीवनचर्या थी।
एक बार मैं महीने भर पहले ही छुट्टी से वापस बीदर आया था कि किसी कारण से अचानक मुझे फिर छुट्टी लेनी पड़ी। लीव तो आसानी से सैंक्शन हो गई पर समस्या यह थी कि बैंक एकाउंट बिल्कुल खाली था, हम बिल्कुल ठनठन गोपाल थे। उन दिनों छुट्टी जाते समय हम अपनी सारी बचत घर ले जाया करते थे। कमाते हुए भी खाली हाथ घर जाना खुद को अपराध सा लगता था। अम्मा तो खैर हमेशा कहती कि तुम आ जाओ बस, बाकी कोई टेंशन मत लो। पापा भी पैसे के लिए सीधे कभी नहीं बोलते थे लेकिन इशारों में बता देते कि खर्चा बहुत है। कहते कि छोटे मोटे काम तो हो ही रहे हैं बस कुछ बड़े काम आ गए इसलिए हाथ दबा हुआ है। मसलन :-
- बिजली का नया ट्यूबवेल लगवाया है डेढ़ लाख रुपये लग गए।
- ऊपर वाले कमरों में प्लास्टर और कलर करवाने की सोच रहे थे।
- गाय छुटा गई है, सोच रहे हैं कि एक बड़ी भैंस ले ली जाए तो बच्चों के लिए दूध का आराम हो जाएगा; आदि आदि।
अब ऐसे में खाली हाथ घर हम क्या मुँह लेकर जाते। अपनी यह समस्या मैंने डिनर के समय खरे सर को बताई तो वह बोले- “तू खाली हाथ घर नहीं जाएगा। पैसे की व्यवस्था कहीं से भी की जाएगी। कितने पैसे चाहिए तुझे?”
“सर, चाहिए तो दस हज़ार, कुछ कम होगा तब भी काम चला लेंगे।” मैंने संकोच से कहा।
“एक काम कर ‘नायर’ बिलेट के पीछे अभी बैठा होगा। एक बार उससे कह के देख ले। उम्मीद है काम हो जाएगा।”
“लेकिन सर, वो तो दारू पी रहे होंगे इस समय” मैंने सशंकित होते हुए कहा।
“तो क्या हुआ? कौन सा तुझे वो खा जाएगा? वैसे वो बहुत हेल्पिंग नेचर का है। जा एक बार बात तो कर” खरे सर ने मुझे आश्वस्त किया।
पहले तो मैंने सोचा कि कौन जाए नायर सर के पास, वह भी इस समय। दारू के नशे में कुछ उल्टा सीधा बोल दिया तो। या फिर बुरा ही मान जाएं कि हमको चैन से दारू भी नहीं पीने देते ये लोग। लेकिन मन को समझाया कि पैसे चाहिए तो रिस्क तो लेना पड़ेगा।
खैर मैं डरते डरते नायर सर के पास पहुंचा। गर्मी का महीना था। वह खुले आसमान के नीचे एक सर्विस चारपाई पर आसन जमाए हुए थे। टेप रेकॉर्डर में मलयाली भाषा मे “सुंदरी, सुंदरी” नामक मधुर प्रेमगीत बज रहा था। वह दीन दुनिया से बेखबर चंद्रमा की ओर देखते हुए गाने के साथ ताल देते हुए धीरे धीरे सिर हिलाते जा रहे थे। उन्होंने कमर के नीचे एक छीटदार लुंगी पहन रखी थी और कमर के ऊपर एक सफेद सैंडो बनियान। गले में मोटी सी सोने की चेन डाल रखी थी। दाहिने हाथ में सिगरेट थी, जिसे वह कुछ समय के बाद चारपाई के नीचे अंगूठे और पास वाली तर्जनी अंगुली से झटक देते ताकि राख नीचे गिर जाए। उन्होंने बाएं हाथ में व्हिस्की से भरा हुआ ग्लास ले रखा था। सामने छोटी प्लेट में नमकीन, सलाद , कुछ पीस रोस्टेड चिकेन था। एक बड़ी प्लेट में ग्रेवी वाला चिकेन और दूसरे में चावल था। रोटी नहीं थी।
मुझे सामने देख उनकी तंद्रा टूटी। टेप रेकॉर्डर कुछ स्लो किया फिर प्यार से बोले- “वीके, तू इधर, how come? दारू पियेगा क्या?? ” वह कश लेते हुए बोले।
“सर, आपको तो पता है मैं नहीं पीता।” मैंने धीरे से कहा।
“That’s why I am surprised. देन इधर कैसे? सिगरेट लेगा??” वे मेरी तरफ सिगरेट का पैकेट बढ़ाते हुए बोले।
“सर, मुझे कुछ और काम था आपसे?” मैं मुद्दे पर आ गया।
“बिंदास बोल भाई। क्या काम है?” नायर सर व्हिस्की का सिप लेते हुए बोले
“सर, मैं इसी वीकएण्ड में लीव जा रहा हूँ। एडवांस पेमेंट के लिए एप्लीकेशन डाल रखी है। आपसे रिक्वेस्ट है कि पेमेंट कुछ ज्यादा बना देना।” मैंने एक सांस में सारी बात कह दी।
“कितना चाहिए तुझे, उतना बना दूंगा। ” नायर सर ने बेपरवाही से व्हिस्की घूँटते हुए कहा।
“सर, दस हजार बन जाएगी?” मैंने डरते डरते कहा।
“दस क्यों पंद्रह बना दूंगा। तेरी ही तो सैलरी है, बस एडवांस ही तो ले रहा है। तेरा तुझको अर्पन, क्या लागे मेरा” नायर सर हंसते हुए बोले।
“सर, पंद्रह बना दोगे तो मैं बहुत खुश हो जाऊंगा। ” मैंने उत्साह से कहा।
“बना दूंगा क्या, बन गई समझो। बस मुझे कल सुबह एक बार रिमाइंड करा देना सेक्शन में।” नायर सर ने टेपरिकार्डर की आवाज फिर से बढ़ाते हुए कहा।
“ठीक है सर। थैंक यू। गुड नाईट।” मैंने विनम्रता से कहा और वापस आ गया।
बताते चलूं कि उस समय हम लोगों की मैन्युअल पेमेंट बनती थी। छुट्टी जाते समय लीव राशन अलाउंस के पैसे अलग से मिलते थे । पेमेंट भी एडवांस में मिल जाती थी और अगर क्लर्क जान पहचान का हो तो वह एक्स्ट्रा पेमेंट भी बना देता था जो आने वाले महीनों की पेमेंट से एडजस्ट कर ली जाती थी।
मैं वापस बिलेट आ गया। चारपाई पर लेटकर सोचने लगा कि नायर सर ने नशे के झोंक में 15, 000 रुपये के लिए कह तो दिया है लेकिन क्या वह सचमुच ऐसा करेंगे। यह तो मेरी लगभग दो महीने की तनख्वाह होगी। क्या नायर सर सचमुच में मेरे लिए इतना रिस्क लेंगे? यही सोचते-विचारते हुए मैं सो गया। अगली सुबह टी ब्रेक में अकाउंट सेक्शन जाकर नायर सर के कान में फुसफुसाकर उनको अपनी एडवांस और एक्स्ट्रा पेमेंट के बारे में याद दिलाया तो वह अधिकार से बोले -“
“जा तेरा काम कर दिया है मैंने। ऐश कर। “
अगले दिन सचमुच में मेरे अकाउंट में ₹15000 आ चुके थे और पूरे ₹15000 का चेक लेकर मैं खुशी- खुशी घर गया।
इस घटना के बाद से दारू पीने वालों के प्रति मेरा दृष्टिकोण हमेशा के लिए बदल गया जो आज भी कायम है।
(विनय सिंह बैस)