राघवेन्द्र कुमार “राघव”-
मृत्तिका निर्मित दिये से
है अमावस काँपती ।
जलते हुए नन्हें दिये से
डरकर निशा है भागती ।
दीपक देह की अभिव्यंजना से
रात जगमग हो रही ।
दीपकों के धर्म से
रात भी अब जागती ।
मृत्तिका निर्मित दिये से
है अमावस काँपती ।
देह मानव की है माटी
दीप भी इससे रचा ।
स्नेह उसमें है भरा घृत
जीवात्मा है वर्तिका ।
देश ऐसे दीप चाहे
बन सकें जो आरती ।
मृत्तिका निर्मित दिये से
है अमावस काँपती ।
जड़ता, अहंता, काम-क्रीड़ा
ये तमस के रूप हैं ।
सद्, असद् के घर है बन्दी ।
पाप ही अब भूप है ।
मिट सके नैराश्य जिससे
धरती दिया वो चाहती ।
मृत्तिका निर्मित दिये से
है अमावस काँपती ।
द्वैत ही अद्वैत है
दीप यह बतला रहा ।
दीप ज्योति एक हैं
जलकर दिया समझा रहा ।
सृष्टि तम में खो गयी
उज्ज्वल प्रकृति है माँगती ।
मृत्तिका निर्मित दिये से
है अमावस काँपती ।
दीप प्रज्ञा का जला
मन का अंधेरा मिट गया ।
राम ही रहमान हैं
ये ज्ञान मन में भर गया ।
प्रिय प्रेम को भूले नहीं
प्रियतमा यह चाहती ।
मृत्तिका निर्मित दिये से
है अमावस काँपती ।