माटी क्रन्दन कर रही, करता घोष किसान

★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

एक–
लुटिया देखो डूब रही, जन-जन है हलकान।
लाल क़िले-प्राचीर से, करता घोष किसान।।
दो–
महँगाई अब खा रही, दु:खी खेत-खलियान।
निद्रा छोड़ो, जागो सब, करता घोष किसान।।
तीन–
मूँद आँख हैं सो रहे, नहीं ज़रा भी भान।
नाश देश का हो रहा, करता घोष किसान।।
चार–
देव अन्न का रो रहा, छप्पन इंच महान्।
बाँट देश को खा रहा, करता घोष किसान।।
पाँच–
करते बन्दबाँट यहाँ, मिलकर के शैतान।
घृणा-बीज सब बो रहे, करता घोष किसान।।
छ:–
सोन चिरैया उड़ चली, ले समेट कर शान।
माटी क्रन्दन कर रही, करता घोष किसान।।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २६ जनवरी, २०२१ ईसवी।)